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________________ श्रावकधर्मप्रदीप यथा किल एतैर्महापुरुषैः धर्मं अराधितः यथा च प्रसारितः यथा वर्धितः यथा लोके स्थिरीकृतस्तत्प्रसादाच्च साक्षात्परम्परया वा स्वात्मसुखमासादितं तथैव तेषामनुकरणं सर्वैरपि कार्यम् । एवं कृते सति जगति संघर्षाभावे सति सुखदायिनी शान्तिर्भविष्यति। सर्वप्रकारेण सुखसमृद्धिकारकस्य श्रीवीतरागस्वरूपस्य वीतरागप्रणीतस्य वा सद्धर्मस्य कार्यरूपेण सर्वत्र भूतले प्रचारः कर्त्तव्यः यतः सर्वत्र गृहे गृहे स्वात्मचर्या एव स्यात् । स च सम्यक स्वार्थः । ग्राह्यस्तु स विश्वकल्याणकारकः । धनादिना खलु यः स्वार्थः साध्यते स विश्वघातक एव। तन्नाश एव सम्यकस्वार्थः । तत्साधनङ्कर्तव्यमेव । तेनैव लोकहितम्भवति इति ज्ञातव्यम् । १६० । १ ६१ ।१६२। २०२ इति श्रीकुन्थुसागराचार्यविरचिते श्रावकधर्मप्रदीपे पण्डितजगन्मोहनलालसिद्धान्तशास्त्रिकृतायां प्रभाख्यायां व्याख्यां च चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः । भगवान् वीतराग सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित रागादि दोषरहित स्वात्मधर्म स्वरूप सद्धर्म ही आत्मा को संसार के बंधन से मुक्ति प्रदान करने में समर्थ है। वही सद्धर्म यदि पूर्णमात्रा में न हो सका और मुक्ति प्राप्त न हुई तो संसार अवस्था में भी उसके प्रसाद से नरकादि दुखों का विनाश होकर स्वर्गादि में सुखों की प्राप्ति होती है। इस सद्धर्म के प्रमुख उपासक और निर्देशक तो भगवान् तीर्थंकर देव हैं जो प्रत्येक उत्सर्पिणी या अवसर्पिणी काल में २४ होते हैं। वे अपने तपोबल से घातिया कर्म ज्ञानावरणादि को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त कर, जगतके हित के लिए ही तत्त्वोपदेश करते हैं। उन तीर्थकरों के काल में मध्यमध्य में (१२) चक्रवर्ती होते हैं, जो षट्खण्ड भूमि के साधक होते हैं। समस्त भरत क्षेत्र के ३ २ हजार मुकुटबद्ध राजा जिनके चरणों में नमस्कार करते हैं उन चक्रवर्तियों द्वारा धर्म का पालन होता है। वे धर्मानुकूल विश्वशान्ति के लिए ही जगत् का शासन करते हैं तथा तीर्थकरों की तरह ही प्रायः तप करके मुक्ति को प्राप्त करते हैं। अपने-अपने समय में चक्रवर्ती की तरह तीन खण्ड भूमि के अधिपति ९ प्रतिनारायण होते हैं, ये भी यथायोग्य धर्म का पालन करते हैं तथा प्रजाजनों में धर्म की वृद्धि करते हैं। राज्य कारणों से इनका विनाश करनेवाले नारायण भी इनके ही समय में होते हैं। उनकी भी संख्या ९ है । इनके बड़े भाई बलभद्र कहलाते हैं। नारायण और बलभद्र में अत्यन्त गाढ़ स्नेह होता है। ये सब २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ प्रतिनारायण, ९ नारायण और ९ बलभद्र कुल ३६ नररत्न प्रमुख शलाका पुरुष हैं जिनके द्वारा धर्म की सदा रक्षा और वृद्धि होती आई है। जिसतरह उन्होंने सद्धर्म का अनुपालन, प्रवृत्ति, प्रचार और वृद्धि की है, ऐसी ही सबको करनी चाहिए। ऐसा होने पर ही जगत् में संघर्ष का अभाव होकर सुख और शान्ति की वृद्धि हो सकेगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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