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नैष्ठिकाचार
आत्मा का पृथक्त्व अन्यत्व - भावना और आत्मा के एकाकीपन का चिन्तवन एकत्व-भावना है। वैराग्य की प्राप्ति के लिए शरीर का मोह त्यागकर उसके वास्तविक अपवित्र स्वरूप का चिन्तवन करना अशुचि-भावना है। अपने किन-किन दुरभिप्रायों व दुष्परिणामों से कर्मों का आस्रव होता हैं उसका चिन्तवन करना आस्रव-भावना है। इन दुष्ट कर्मों का आवागमन कैसे रुके, वे दुष्परिणाम कैसे दूर किए जाँय तथा उनके विरोधी सत्य परिणाम कौन है इत्यादि चिन्तवन करना संवर-भावना है। कर्मों ने मुझे अनादि काल से जकड़ रखा है, उनसे छुटकारा कैसे हो इस प्रकार कर्म निर्जरा के उपाय सोचना विचारना यह निर्जरा भावना है। धर्म की प्राप्ति इस संसार में कितनी कठिन है। ८४ लाख योनियों में स्व-स्व कर्मानुसार परिभ्रमण करनेवाले इस जीव को मानव भव ही बहुत दुर्लभ है। कदाचित् प्राप्त हो जाय तो सज्ज्ञान के अभाव में पशुतुल्य जीवन व्यतीत करता है। यह विचारना बोधिदुर्लभ-भावना है। लोक के स्वरूप का चिन्तवन करना लोक-भावना है। लोक में जैसे सब कुछ सुलभ है वैसे धर्म सुलभ नहीं है। धर्म का क्या स्वरूप है। धर्म की मानव जीवन के लिए क्या आवश्यकता है। उससे मानव समाज का क्या लाभ है इत्यादि धर्म स्वभाव का चिन्तवन करना धर्मानुप्रेक्षा है।
उक्त प्रकार से दश धर्मों का उत्तमरीति से परिपालन करना तथा द्वादश सद्भावनाओं का सदाकाल विचार करते रहना ये श्रावक के लिए योग्य कार्य हैं। इनसे स्वपर कल्याण होता है अतः अवश्य ही इन्हें अंगीकार करना चाहिए । १३४ |
प्रश्नः - कार्यं किमर्थं शास्त्राणां पठनं कठिनं विभो ।
हे विभो ! शास्त्रों का पठन जो कि अत्यन्त कठिन है किसलिए किया जाता है, उससे क्या लाभ है; कृपा कर कहें
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श्राद्धानां पतनं न स्यात् तदर्थं दृश्यते मया । सुस्वाध्यायक्रमस्तेभ्यः संसारेऽपि सुखप्रदः ।। १३५ । ।
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श्राद्धानामित्यादिः - शास्त्रस्वाध्यायतः सत्शिक्षा प्राप्यते । शिक्षितः खलु स्वहिताहिते विचारयति। हिताहितविचारकस्य पतनं संसारे न स्यात् । इत्येतस्मात् कारणात् स्वाध्यायस्योपदेशः कियते जैनाचार्यैः। १ ३५।
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शास्त्र पठन से सशिक्षा प्राप्त होती है। विद्या का सुसंस्कार ही मानव जीवन को उच्च बनाने का एकमात्र उपाय है। जिन्होंने भी उन्नति की है सम्यग्ज्ञान के द्वारा ही प्राप्त की है। ज्ञान की बहुत महिमा है। बिना परिपूर्ण ज्ञान हुए मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती
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