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________________ नैष्ठिकाचार १७५ के कारणों की उपस्थिति में भी मन पर संयमन करना, उसे विकृत न होने देना उत्तमक्षमा है। ऐसी उत्तम क्षमा कायरों की क्षमा नहीं है। मन पर विजय पाना बहुत बड़े साहसी और वीर पुरुष का कार्य है। बदला न लेना या न ले सकना क्षमा नहीं है, वह तो शक्ति के अभाव की पराधीनता है। वहाँ मन तो विकारी है। जहाँ मन विकारी न होकर सामर्थ्यवान् है तथा बदला न लेने की भावना है वह क्षमावान है। इस क्षमा गुण से गृहस्थ भी पारस्परिक वैर को खोकर सहानुभूति का पात्र बनकर लोकपूज्य हो जाता है। जबकि क्रोध से और बदला लेने से वैर और अशान्ति ही बढ़ती है। ऐसा होने पर भी गृहस्थ एकान्त क्षमा पालने के योग्य पात्र नहीं है। गृहस्थ होने के नाते उसपर स्त्री, बालबच्चों के परिपालन का भार है। देश, धर्म व समाज का भार है, अतः जब कोई दुष्ट अनेक प्रकार से समझाने पर भी बिना कारण दुष्टता करता है, सताता है, धर्म नष्ट करता है, धर्मात्माओं के धर्मपालन करने में विध्न करता है, शान्ति को स्थिर नहीं रहने देना चाहता, तब वह सम्यग्दृष्टि गृहस्थ उसके अशान्तिपूर्ण कार्यों को सभी सम्भव उपायों से रोकता है। धर्मात्माओं की रक्षा करता है। उसके इस प्रयत्न में दुष्ट के ऊपर से क्षमा का भाव दूर हो जाता है, उसे दण्ड देना पड़ता है, उसकी मृत्यु भी हो जाती है। इतना बड़ा अनर्थ भी उस क्षमाशील गृहस्थ को अंगीकार कर लेना पड़ता है उससे भी बड़े अनर्थ से बचने के लिए। यदि गृहस्थ ऐसा न करे तो संसार में शान्ति के इच्छुक क्षमाशील करोड़ों भी सज्जन हों तो एक ही अशान्त दुष्ट अपने असत् कृत्यों से उनकी शान्ति में बाधा उपस्थित कर वन में सुलगनेवाली अग्नि की एक चिनगारी के समान समस्त सज्जन वन को अपनी ज्वाला से अशान्त बना सकता है। अतः उनके प्रति द्वेष से नहीं किन्तु सज्जनों की रक्षा के लिए उनका रोध आवश्यक समझ कर वह अपनी शान्ति को तब तक के लिए तिलाञ्जलि दे देता है जब तक कि वह उसके असत् प्रयत्नों को विफल न कर दे। उसकी यह अशान्त क्रिया शान्ति रक्षा के लिए है, शान्ति भंग के लिए नहीं। गृहस्थ के लिए जितनी आवश्यकता क्षमा की है उतनी ही आवश्यकता क्षमाशीलों के संरक्षण की भी है। उसके बिना सारा विश्व अशान्त हो सकता है अतः क्षमाशीलों के संरक्षण करते हुए ही गृहस्थ को क्षमाशील होना चाहिए। क्षमा के साथ ही सद्गृहस्थ को उत्तम विनय गुण का भी पालन करना आवश्यक है। इसे उत्तममार्दव नाम का दूसरा धर्म कहा है। अहंकार अनेक गुणों को भी दूषित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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