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श्रावकधर्मप्रदीप
स्त्री आदि पदार्थों में मोहित बुद्धिवाले हैं वे केवल अपने स्वार्थ साधन के लिए ही सभ्यता का ढोंग करते हैं, ऐसे मायाचारी पुरुष लोक में अपकीर्ति के ही भागी होते हैं। लोग उनका कभी विश्वास नहीं करते।
मायावी का नम्र व्यवहार चूहे पकड़ने के लिए शान्त और नम्रता से बैठी हुई बिल्ली के व्यवहार के समान झूठ स्वार्थों से परिपूर्ण होता है। लोक में उसे बिलैया दण्डवत कहते हैं। ऐसा असद्व्यवहार या कपटविशिष्ट शिष्ट व्यवहार सम्यग्दृष्टि श्रावक कभी नहीं करता। जिन इन्द्रिय भोगों के साधने के लिए यह कपट का वेष रखा जाता है सम्यग्दृष्टि उन इन्द्रिय भोगों को हेय और क्षणस्थायी मानता है। वह उन्हें आत्महित के प्रतिकूल समझता है तब वह उसे कैसे स्वीकार कर सकता है अपने परम शुद्धि चैतन्य स्वरूप में रमण करने वाला और उस आत्मसुख के स्वाद का अनुभवन करनेवाला वह सम्यग्दृष्टि श्रावक सदा ऐसे मिथ्याप्रपञ्च से दूर रह कर सभी साधर्मी बन्धुओं के साथ उनकी सब प्रकार की उन्नति की कामना रखते हुए प्रेमभाव रखता है, सहानुभूति रखता है। विपत्ति में उनका साथ देता है, उनकी सब प्रकार से सहायता करता है। इस प्रकार के पारस्परिक सद्व्यवहार से वह अपनी पूरी समाज में शान्ति का स्रोत बहा देता है जो फैलने पर एक साथ संसार भर की अशान्ति को हर लेने में समर्थ है। १३३ ।
प्रश्न:-कथं क्षमादयो धर्माः पाल्याः प्रसिद्ध्यै गुरो वद।
हे गुरुदेव! क्षमादि धर्मों का पालन कैसे करना चाहिए, कृपाकर मेरी इष्ट सिद्धि के लिए कहिए
(अनुष्टुप्) यथाशक्ति क्षमादीनां धर्माणां पालनं मुदा । स्वात्मसिद्धयै सदा कार्य चानुप्रेक्षादिचिन्तनम् ।।१३४।।
यथेत्यादिः- पारस्परिके व्यवहारे वात्सल्यव्यवहारवत् क्षमादीनामपि व्यवहारः तथा तत्पालनं कर्तव्यम्। तद्व्यवहारः किल स्वलाभाय परलाभाय च प्रभवति। अनित्याद्यनुप्रेक्षाणामपि चिन्तनं सदा कार्यं यतः स्वात्मसिद्धिः भवति। मोहितबुद्धयस्तु न जानन्ति वस्तुनो यथार्थस्वरूपम्। इत्यस्मादेव वस्तुस्वरूपविवेचनं सदा कार्यमेव दुर्बुद्धिदूरीकरणाय, यद्यपि उत्तमक्षमादीनामुपयोगःद्वादशानुप्रेक्षाणामपि चिन्तनं क्रियते साधुभिस्तथापि तदेकदेशः श्रावकैरपि विधेयो यथाशक्ति ।१३४।।
यद्यपि उत्तम क्षमादि धर्मों का पालन तथा बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन साधुजन करते हैं तथापि उसका एकदेश श्रावकों को भी पालन करना चाहिए। क्रोध
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