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श्रावकधर्मप्रदीप
व्यापार का मूल उद्देश्य जिस किसी प्रकार से धनसंग्रह नहीं है। उसका उद्देश्य अपने परिश्रम के अनुकूल दूसरों के लाभ के अधिकार को न बिगाड़ते हुए न्याय प्राप्त अपने अधिकार प्रमाण राज्य के नियमानुकूल तथा महाजनों द्वारा नियमित विधिसम्मत उपयुक्त द्रव्य का प्राप्त करना तथा उतने में ही संतोषपूर्वक आजीविका निर्वाह करना ही है। ऐसा करनेवालों को ही शान्ति की प्राप्ति और इष्ट प्राप्ति होती है।१२९/१३०।
प्रश्न:-अहिंसाधर्मवृद्ध्यर्थ किं किं कार्य जनैः सदा।
श्रावक को क्या क्या करना उचित है जिससे अहिंसा परमधर्म की वृद्धि हो। कृपया बताइए
(अनुष्टप्) स्वदेशोद्धारकार्येऽपि यतन्तां श्रावकाः मुदा ।। धर्मार्थमपि सर्वत्र गच्छन्तु स्वात्मसिद्धये ॥१३१।। यतः स्याज्जैनधर्मस्य प्रसिद्धिः सर्वभूतले ।। श्रावकाणां परं जन्म सफलं स्याद्विशेषतः ।।१३२।।युग्मम्।।
अहिंसा एव परमो धर्मः सर्वकल्याणकारकः। तन्महत्त्वं खलु लोके यथा यथा विस्तृतं भविष्यति तथा तथा स्याल्लोककल्याणम्। तत् कथं विस्तृतो भविष्यति इति प्रश्ने सति आचार्य आह श्रावकाः मुदा स्वदेशोद्धारकार्ये यतन्ताम्। तथा धर्मार्थमहिंसाधर्मप्रचाराय सर्वत्र भूमण्डले स्वात्मधर्ममविराधयन्तो गच्छन्तु। यतो जैनधर्मस्य जिनोपदिष्टवीतरागधर्मस्य सर्वभूतले प्रसिद्धिः प्रचारश्च स्यात् श्रावकाणां परमुत्कृष्टं जन्म जीवनं विशेषतः सफलं स्यात् ।१३१।१३२।
श्रावकों को अपने देश के उद्धार के लिए भी सदा प्रयत्न करना चाहिए तथा अहिंसा धर्म के प्रचार के लिए उन्हें सभी जगह जाना चाहिए। इससे विश्व के कोने-कोने में जैन धर्म की प्रसिद्धि, प्रभावना और प्रचार होगा और श्रावकों का उत्कृष्ट मानव जन्म भी सफल होगा।
विशेषार्थ- अहिंसा परम धर्म है। वह विश्व का कल्याणकारक है। उस परम धर्म का जितना विस्तार संसार में होगा उतना ही लोक का कल्याण होगा। ग्रन्थकार पूज्य आचार्य महाराज ने ग्रंथ निर्माण के समय की आवश्यकता का अनुभव कर बताया है कि हिंसा प्रधान जीवन वाले अंग्रेजों के द्वारा पराधीन किए हुए अपने देश का उद्धार कर अहिंसा धर्म की रक्षा.करना श्रावकों का परम कर्तव्य है। तथा इसी प्रकार हिंसाबहुल देश जैसे ब्रिटेन, अमेरिका रूस और जर्मनी आदि में जाकर वहाँ से हिंसा का प्रभाव
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