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________________ १७० श्रावकधर्मप्रदीप ___ चौथा पुरुषार्थ मोक्ष पुरुषार्थ है। संसार परिभ्रमण का मूल हेतु परम्परा से या अनादि काल से यह कर्म है, उसके नाश करने के लिए ही मोक्षार्थीका सतत प्रयत्न है। व्रत-समिति-गुप्ति का पालन, भावना और दस धर्मों का अंगीकार, परीषह और उपसर्ग पर विजय, उत्तमोत्तम ध्यानों का आराधन ये सब मोक्षार्थी के प्रयत्न हैं। इन प्रयत्नों में सर्वत्र धर्म पुरुषार्थ का साम्राज्य है। धर्मरहित क्रियायें निवृत्ति के लिए साधक नहीं होती। जैसे कि इष्ट स्थान को जाने के लिए निरुद्देश्य गति या नेत्रहीन की गति सफलता नहीं प्राप्त करा सकती उसी प्रकार सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान विहीन चारित्र मुक्ति का साधन नहीं है, अतः धर्म पुरुषार्थ युक्त होने से ही यह सब तपस्या चारित्रसंज्ञा को प्राप्त होकर मोक्ष की साधन है। शीत, घाम की परिषह, आई हुई अनेक विपत्तियाँ पशु और नारकी भी सहते हैं पर सम्यक्त्व और सम्यग्ज्ञान विहीन वे पराधीनता से स्वीकृत क्रियाएँ चारित्र नाम को नहीं पा सकतीं, अतः वे मोक्ष पुरुषार्थ के प्रयत्नों में सम्मिलित नहीं हैं। अतः धर्मसंयुक्त उक्त प्रयत्न ही मोक्ष का साधन हैं। साधक उनके द्वारा ही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। जहाँ पर कि यथार्थ इन्द्रियाधीनता से विमुक्त, निरन्तराय, शाश्वत, अडिग, परिपूर्ण, स्वभावरूप, अछेद्य, अविनश्वर, सर्व दुखातीत और स्वात्मोत्थ सुख प्राप्त होता है। __मानवगति में ही और उसमें भी पूर्णतया पुरुष वर्ग द्वारा ही ये चारों साध्य हैं, अतएव ये पुरुषार्थ कहलाते हैं। इनके पुरुषार्थ नामकरण का यही एकमात्र हेतु है। यदि अन्यत्र भी वे साध्य हो सकते या स्त्री और नपुंसकों द्वारा भी साधे जा सकते तो इनका नाम पुरुषार्थ न होकर और कुछ ही होता। जो मनुष्य गति और पुरुष जन्म पाकर भी इसका साधन न करें तो उन जैसा मूर्ख प्राणी एक पशु क्या कीट पतंग भी नहीं है। अंधा गिरे तो मूर्ख नहीं परन्तु सूझता यदि गिरे तो वह मूर्ख है और सनेत्र होने पर भी अन्धे के ही बराबर है। ऐसा विचार कर बुद्धिमान् पुरुषों को अपने लौकिक और पारलौकिक इन्द्रियजन्य या स्वात्मोत्थ अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न पूर्वक चारों पुरुषार्थों को अपने अपने पदानुकूल यथायोग्य रीति से पालन करना चाहिए। पुरुषार्थी गृहस्थ ही मोक्ष पुरुषार्थी होता है। पुरुषार्थी का मानव जीवन ही सफल है। अतः स्वपर हितैषी को पुरुषार्थी बनना चाहिए।१२७/१२८। ___ प्रश्न:-चातुर्मासेऽन्यकाले वा कथं कार्यं धनार्जनम् । वर्षा ऋतु में या अन्य समय में धनार्जन किस प्रकार करना चाहिए, कृपाकर कहिये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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