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________________ नैष्ठिकाचार व्यवहार क्यों किया? मेरी अवश्य कोई भूल है या मैंने अवश्य इसे कोई हानि पहुँचाई है। अथवा यह मुझे ही दुर्वचन क्यों कहता है या मुझे ही हानि क्यों पहुँचाता है ? अन्य को क्यों न कहता और उनको हानि क्यों नहीं पहुँचाता ? ऐसा विचार करने पर उसे अवश्य उसका रहस्य मिल जाता है। उसके मूल कारण को जानकर वह उसे ही नष्ट करता है, ताकि भविष्य में दोनों अनिष्ट उसके सामने न आवें । मिथ्यादृष्टी मनुष्य ठीक इससे विपरीत दुर्वचनी को दूने दुर्वचन सुनाता है और उसकी दूनी हानि करने को प्रस्तुत रहता है। वह तत्काल बदले की भावना क्रोधवश पैदा कर लेता है। कषायावेश में वह सत्य की खोज नहीं कर सकता । इसी प्रकार प्रत्येक कार्य में दार्शनिक सत्य की खोज करता है, उसके रहस्य को खोलता है और उसके मूल को सम्हालने का प्रयत्न करता है। वह कषायावेश में आकर अपने को सत्यान्वेषण के सम्पर्क से दूर नहीं फेंक देता। १५९ सत्यान्वेषण कना सत्यमार्ग पर चलना यही सम्यक्त्व है। यह मिथ्यात्व का प्रतिपक्षी है । विशुद्ध सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व, अन्याय और अभक्ष्यभक्षण इन तीन बातों से सदा परहेज रखता है। वह सप्त व्यसनों का त्यागी पञ्च पापों से अपनी योग्यतानुसार विरक्त, अष्ट मूलगुणों का पालन तथा मिथ्या आयतनों और मूढ़ताओं से विमुक्त होने के कारण न्यायमार्ग से विरूद्ध मार्ग का कभी अवलम्बन नहीं कर सकता। वह सदा मर्यादा में रहता है । मर्यादा का उल्लंघन ही अन्याय है। सम्यक्त्वी अन्याय पर न चलता है और न अन्याय व्यवहार कभी सहता है । अन्याय अनेक प्रकार से होता है। जैसे किसी के अधिकार छीनना, किसी के प्राप्त अधिकार को स्वीकार न करना, व्यापार में लोक और राज्य के विरुद्ध मुनाफा उठाना, प्रमाण से अधिक भोजन करना, दूसरों के हकों को मारना, जरूरत से ज्यादा भोगोपभोग करना, अत्यधिक विलासिता, शृंगार रचना करना, धर्म के समय भोग भोगना, किसी को दुर्वचन कहना, अति संग्रह करना, अति लोभ करना, अति क्रोध करना, विश्वासघात करना, अहंकार करना, धर्मात्मा और सज्जन का यथायोग्य सम्मान न करना, लोक-विरुद्ध, नीति-विरुद्ध और धर्म-विरुद्ध वचन बोलना - ये सब न्यायमार्ग के विपरीत अन्यायपूर्ण कार्य हैं। इनसे दार्शनिक (प्रथम प्रतिपाचारी) बचता है। जिन अभक्ष्यों का ऊपर विवेचन किया गया है उन सबका तथा इनके सिवाय और जो अभक्ष्य हो सकते हैं उन्हें वह कभी नहीं खाता। चोरी का द्रव्य अर्थात् चोरी से लाया गया द्रव्य, देवद्रव्य, धर्मादा का द्रव्य, हिंसा करके उत्पादन किया गया द्रव्य, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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