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________________ १४२ श्रावकधर्मप्रदीप सङ्गम स्वप्न में भी न करना चाहिए और वेश्यासङ्गम की तो कल्पना भी भयानक अनर्थपरम्परा का हेतु है। वे धर्मसाक्षी पूर्वक पाणिगृहीत स्वपत्नी में ही संतुष्ट हों। स्वस्त्री परिग्रही पुरुष लोक में प्रामाणिक माना जाता है। वह अनेक अनर्थों से बचा रहता है। वह अपने गृह में सुखी और शान्त रहता है। जब कि परस्त्रीसेवी चोर की तरह सदा अशान्त रहता है। लोक में वह निन्दा का पात्र होता है; उसकी अपकीर्ति होती है, राज व पञ्च दण्ड को प्राप्त होता है, व्यभिचारी अवैध सन्तानोत्पत्ति को बढ़ाने वाला होता है। उक्त प्रकार के दुःखों को प्राप्त कर वह स्वयं के लिए और परजीवों के लिए भी महान् अशान्ति का कारण हो जाता है। उक्त दुष्कृति के कारण रावण विश्वव्यापी महायुद्ध का कारण बना। जिसकी शास्त्रों में निन्दा गाई है और लौकिकजन तो आज भी उसकी मूर्ति बनाकर उसका अति अपमान करते हैं व बध करते हैं। मद्य के नशे की तरह परस्त्रीसेवी पुरुष भी उस व्यसन के नशे में फंस जाता है और नशे में मोहित हो स्वपरकल्याण के मार्ग से सर्वथा दूर हो अपना और पराया अकल्याण इस लोक में तो करता ही है साथ ही अपने अगले अनेक जन्मों को भी बिगाड़ लेता है ऐसा विचार कर परस्त्री और वेश्यासङ्ग का परित्याग कर स्वस्त्री मात्र में संतुष्ट होना ब्रह्मचर्याणुव्रत है।१००। प्रश्न:-सङ्गत्यागस्वरूपस्य किं चिद्रं मे गुरो वद। हे गुरुदेव! परिग्रह त्याग व्रत का क्या स्वरूप है, कृपाकर मुझसे कहें (इन्द्रवज्रा) बाह्योऽन्तरङ्गो भवदोऽस्ति संगो ज्ञात्वेति मुक्त्वा द्विविधं ततस्तम्। तिष्ठेत्स्वभावे यदि स्वात्मनो वाऽसङ्गव्रतं तस्य भवेत्पवित्रम् ।।१०१।। ____ बाह्येत्यादिः- स्वात्मव्यतिरिक्तपदार्थासक्तिरेव परिग्रहः। स द्विविधः अन्तरङ्गो बाह्यश्च। स्वात्मनो विकारास्तु मिथ्यात्व-क्रोध-मान-माया-लोभ-नवनोकषायरूपाश्चतुर्दशसंख्याकाः। अन्तरङ्गसङ्गाः । बाह्यास्तु क्षेत्रावास्तु-हिरण्य-सुवर्ण-धन-धान्य-दासी-दास-कुप्य-भाण्डरूपेण दशविधः। असौ द्विविधोऽपि सङ्गो भवदो भवदुःखकारकः इति ज्ञात्वा यः स्वात्मनः स्वभावे तिष्ठति तस्य पवित्रं सङ्गत्यागवतं भवति। यस्तु सम्पूर्णरीत्या उभयसङ्गं परित्यक्तुमसमर्थोऽस्ति सोऽपि यथायोग्यं परिग्रहान् परिमाय परिमितमेव स्वीकृत्य शेषाणां परित्यागं करोति तस्य पञ्चममणुव्रतं स्यात् । १०१। अपनी आत्मा से भिन्न पदार्थों का ग्रहण है, वह परिग्रह है। वह परिग्रह दो प्रकार है-अन्तरङ्ग और बाह्य। आत्मा के विकारस्वरूप भाव जैसे-मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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