SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ श्रावकधर्मप्रदीप जाती है उसका त्याग शक्य है और जो हो जाती है उसका त्याग शक्य नहीं है। उसके भी त्याग की इच्छा रखनेवाले महापुरुष को गृहस्थ पद का त्याग करना होगा और अपनी विषय वासनाओं का परित्याग करना होगा। तब वह गृहस्थ मार्ग से दूर महापुरुष होगा और जगत् का उद्धारक होगा। ऐसे ही महापुरुषों ने गृहस्थों के लिए, जो सम्पूर्ण हिंसा का त्याग नहीं कर सकते, उक्त प्रकार से धर्म का और कर्तव्य का निर्देश किया है। जैसे रोगी कड़वी औषधि पीना नहीं चाहता पर उसे रोग से बचने के लिए पीनी पड़ती है, वैसे ही गृहस्थ आदि में वर्णित तीनों हिंसाओं से बचना चाहता है पर वह अपने पदस्थयोग्य निर्वाह के लिए उनसे बच नहीं पाता, फिर भी सतत बचने के प्रयत्न में रहता है और यथाशक्ति सोचसमझकर और देख-सुनकर ही प्रत्येक कार्य करता है।९३।९४।९५।९६। (उपजातिः) समस्तविश्वस्य विबोधनार्थं हिंसाप्रभेदाः कथिताः क्रमेण । पूर्वोक्तभोदान् स्वपदानुसारं ज्ञात्वेति भक्त्या परिपालयन्तु ।।९७।। समस्तेत्यादिः- इत्येवमुक्तप्रकारेण हिंसाप्रभेदा हिंसायाः भेदाः श्रीमदाचार्येण समस्तविश्वस्य विबोधनार्थं विश्वकल्याणकामनया क्रमेण कथिता वर्णिताः। पूर्वोक्तभेदान् तेषां हिंसाभेदानां स्वरूपं ज्ञात्वा स्पष्टतया परिज्ञाय अहिंसाव्रतं स्वपदानुसारं स्वस्वपदानुसारेण भक्त्या परिपालयन्तु निरतिचारं यथा स्यात् तथा स्वपरकल्याणमिति।९७। पूर्वोक्त श्लोकों द्वारा हिंसा का विस्तृत स्वरूप तथा उसके भेद प्रभेदो का प्रतिपादन श्रीमदाचार्य कुन्थुसागर महाराज ने श्रीभगवान् महावीर स्वामी द्वारा सदुपदिष्ट और आगम परम्परा द्वारा प्राप्त संक्षेप में किया है। इन हिंसा भेदों का स्वरूप समझ करके अहिंसा व्रत का परिपालन अपने-अपने पदानुसार साधु, ऐलक, क्षुल्लक, प्रतिमाधारी व साधारण गृहस्थ श्रावकों को करना चाहिए। निरतिचार, निर्दोष व्रत का परिपालन स्वपर कल्याणकारक है।९७। प्रश्नः-सत्यव्रतस्वरूपं मे विद्यते किं गुरो वद। हे गुरुदेव! अहिंसाव्रत के परिपालन के लिए हिंसा का स्वरूप और उसके भेदों का स्वरूप समझ लिया। अब सत्यव्रत के स्वरूप का प्रतिपादन कीजिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy