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________________ नैष्ठिकाचार १३३ नसंतानोत्पत्ति का अधिकार है। उसे समस्त आरंभ उद्योग छोड़कर वीतराग हो साधुपना स्वीकार कर लेना चाहिए। यदि वह अपनी वासनाओं का त्याग नहीं कर सकता और दुष्ट के निग्रह में भी हाथ नहीं बटाता तो वह स्वयं अशान्ति का मूल है। उसे कोई भी लौकिक या पारलौकिक सिद्धि नहीं हो सकती। वह राष्ट्र के लिए भार है। प्रजा की अशान्ति का कारण है। देश की पराधीनता और भ्रष्टता का बीज है। वह स्वयं भ्रष्टाचारी है और भ्रष्टाचार का पोषक है। ऐसे लोग समय पड़ने पर शिष्ट का साथ न देकर दुष्ट के ही साथी बन जाते हैं, अतः ऐसे लोगों को भी सन्मार्ग पर लगाने का प्रयत्न करना राज्य का व राज्याधिकारी का कर्तव्य हो जाता है। उक्त कार्यों में हिंसा होना अनिवार्य है और वह ही विरोधी हिंसा है जिसका त्यागी गृहस्थ नहीं हो सकता। गृहस्थ चौथी सङ्कल्पी हिंसा का अवश्य त्यागी होता है। मारने की इच्छा से ही किसी भी प्राणी को मारना सङ्कल्पी हिंसा है। इस सङ्कल्पी हिंसा की सीमा बहुत बड़ी है। सङ्कल्पी हिंसा से जीविका करना उद्योग या आरम्भ नहीं है। पूर्वोक्त सभी कार्यों में हिंसा हो जाना एक बात है जो गृहस्थ के लिए क्षम्य है, हिंसा के द्वारा उक्त कार्यों को साधना बिलकुल दूसरी बात है जो गृहस्थधर्म में अक्षम्य है। इसका खुलासा यह है कि मछली मारने का व्यवसाय, मद्य बनाने व बेचने का व्यवसाय, मांस बेचना, हड्डी व चमड़े का व्यवसाय, अंडे बेचना, मेढक और केचुओं का अचार बनाकर बेचना, वेश्यावृत्ति द्वारा धन पैदा करना, या अन्य प्रकार की व्यभिचार प्रवृत्ति द्वारा धन पैदा करना, डाका डालने का व्यवसाय, धोखा, विश्वासघात दूसरों को जाल में फँसाकर धनोपार्जन करना ये सब पापोपहत वृत्तियाँ हैं जो त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा हैं, या उनके कारण हैं, अथवा उसके अर्थ हैं। अतः सर्वथा परित्याज्य हैं। अपनी विषयवासनाओं की पूर्ति के लिए दूसरों को सताना, न्यायमार्ग का उल्लंघन कर द्रव्य कमाना, ये सब संकल्पी हिंसा के रूपान्तर हैं। जब कि दूसरों की रक्षा के लिए, शान्ति के बढ़ाने के लिए, धर्मात्माओं की रक्षा के लिए और अहिंसा और सत्य को जीवित रखने के लिए हिंसा का हो जाना अपरित्याज्य है, कर्तव्य है। इस कर्तव्य की पूर्ति में जो हिंसा हो जाती है वह गृहस्थ धर्म के प्रतिकूल नहीं है, किन्तु त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा गृहस्थधर्म के लिए सर्वथा प्रतिकूल है। संकल्पी हिंसा वह है जो हिंसा की जाती है, तथा विरोधी, उद्योगी और आरम्भी हिंसा वह है जो हिंसा उक्त कार्यों में गृहस्थ से हो जाती है, की नहीं जाती। जो की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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