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________________ तृतीयोऽध्यायः प्रश्न:- व्यसनानि कति सन्ति तच्चिह्न कीदृशं वद। अथ व्यसनचिह्नं ते ब्रवीमि सुखतः शृणु।। हे गुरुदेव! व्यसन कितने हैं? उनका स्वरूप क्या है? इस प्रश्न को ध्यान में रखकर गुरु उत्तर देते हैं कि हे शिष्य! व्यसनों का स्वरूप मैं कहता हूँ तुम सावधानी से सुनो ___ (अनुष्टुप्) द्यूतं मांसं सुरा वेश्या स्तेयमाखेटकं तथा । परस्त्रीसङ्गमश्चैव सप्तैव व्यसनानि तु ।।क्षेपकम् ।। घूतमित्यादि:- तात्पर्यमेतत्-एतानि सप्तव्यसनानि-द्यूतक्रीडनं मांसभक्षणं सुरापानं वेश्यासङ्गमः स्तेयं नाम परद्रव्यापहरणं आखेटकं नाम पशूनां पक्षिणां मारणं मांसाथ कौतुकार्थं वा परवनितानामासेवनं इति। धर्ममार्गात्पुरुषान् व्यस्यति अंशयति तद् व्यसनं इति व्युत्पत्तेः। एकवारं मांसादिसेवनं तु पापं पुनः-पुनः पापकरणं तदासक्तिश्च व्यसनं इति व्याख्यानात्। सततमेव पापानामिच्छा वर्तते यस्य चित्ते तस्य मनसि धर्मो न दत्तं पदमपि। इत्येवं सुनिश्चितं यत् व्यसनानि प्राणिनो धर्ममार्गात् दूरीकुर्वन्ति तस्माद्धेयानि व्यसनानि स्वहितमिच्छता। व्यसन सात हैं-जुआ खेलना, मांस खाना, मद्य पीना, वेश्यागमन करना, चोरी करना, शिकार करना और परस्त्री सेवन करना। विशेषार्थ- रुपया-पैसा, सोना-चाँदी, घर-मकान आदि द्रव्य की या हारजीत की बाजी लगाकर क्रीड़ा करना द्यूत क्रीड़ा है। माँस का खाना, मद्य का पीना, वेश्या सङ्गम करना, चोरी अर्थात् पराए द्रव्य का अपहरण करना, पशु-पक्षी या मनुष्यों का मांस लोलुपता से, कौतुक से या अन्य विषयलिप्सा से खाना, दूसरों की गृहीत पत्नी जो सस्वामिक हो या अस्वामिक हो उसका सेवन करना, ये सात व्यसन हैं। किसी भी बुरे काम की आदत पड़ जाने को व्यसन कहते हैं। जिसे किए बिना चित्त को चैन ही न पड़े वह व्यसन है। उक्त कार्यों को प्रमादवश या अन्य किसी कारणवश एकबार सेवन करना पाप है और उनको बार-बार सेवन करना या उनकी आसक्ति का बना रहना व्यसन है। व्यसन शब्द का अर्थ ग्रन्थान्तरों में यह किया गया है कि जो प्राणी को धर्ममार्ग से भ्रष्ट करे या धर्ममार्ग में जाने न दे अर्थात् उससे दूर रखे वह व्यसन है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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