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श्रावकधर्मप्रदीप
संसार के सभी प्राणी शरीरी हैं। पाप-पुण्य के उदय से ही रोगित्व-निरोगित्व, दुःख-सुख और सम्पत्ति-विपत्ति होती हैं। प्राणी के दुःख दूर करने में प्रयत्न करना यह महान् सेवाधर्म है। घृणा इसमें अत्यन्त बाधक है। शरीर तो सचमुच में अपवित्र है पर इससे मुझे घृणा क्यों हो, क्योंकि मेरा आत्मा उससे अपवित्र नहीं बन सकता। आत्मा तो परम पवित्र है, फिर शरीर स्पर्श से भय क्या? उलटे विचारों से मैं अपने महान् सेवा धर्म व वात्सल्य गुण से पृथक होता जाऊँगा। मुझे किसी पदार्थ से घृणा न होनी चाहिए। हाँ, वस्तु का स्वरूप अवश्य ही ठीक समझ लेना चाहिए और अपवित्रता को न अपनाते हुए पवित्र बनने का प्रयत्न करना चाहिए।
जो मिथ्यावेषी हैं, कपटी हैं व मायाचारी से दूसरों को ठगते हैं वे धर्ममार्ग के कण्टक हैं। उनकी प्रशंसा या स्तुति करने से लोगों में उनके दुर्गुणों के प्रति प्रीति हो जायगी, अतः कभी भी मिथ्या प्रशंसा या मिथ्या गुण कीर्तन नहीं करना चाहिए। पूर्वोक्त सद्विचारों से सम्यक्त्वी का सम्यक्त्व गुण निरतिचार रहता है और वह ज्ञान और चारित्र के मार्ग में बढ़ने को समर्थ होता है।७७। इसप्रकार आचार्य श्रीकुन्थुसागरविरचित श्रावकधर्मप्रदीप वपण्डित जगन्मोहनलाल सिद्धान्तशास्त्री कृत प्रभा नामक व्याख्या में द्वितीय अध्याय समाप्त हुआ।
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