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________________ १०६ श्रावकधर्मप्रदीप प्राप्त हो जाती थी। परन्तु इस प्रजातन्त्र के नाम पर चलनेवाले इस सामूहिक स्वार्थ और लिप्सा की पूर्ति का अन्त बहुत दूर है। उसकी समाप्ति एक व्यक्ति की इच्छा पर नहीं बल्कि उस देश के जनसमूह की इच्छा पर अवलम्बित है। यह स्वार्थ का लम्बा संघर्ष है। सरल शब्दों में यह निष्कर्ष निकला कि जब तक एक देश अपने कर्तव्य को समझकर अपने स्वार्थ साधन की सीमा अपने तक ही सीमित न रखेगा तब तक दूसरों से शान्ति प्राप्ति की अभिलाषा करना बिलकुल असंगत है। यदि दूसरों को सुखी बनाने के लिए हमारा क्या कर्तव्य है इसका बोध सभी राष्ट्र कर लें तो विश्व में शान्ति हो सकती है। यही कर्तव्याकर्तव्य विवेक संवेगनामा गुण है। निर्वेद गुण-व्यक्तिगत विषयाभिलाषा की न्यूनता को कहते हैं। व्यक्ति यदि अपनी विषयाभिलाषा न्यून करने लगे तो सामूहिक रूप से भी राष्ट्र के व्यक्तिगत स्वार्थ, जिनके कारण एक दूसरे से संघर्ष होते हैं, कम हो जायँगे। उनका कम हो जाना ही संघर्ष का कम हो जाना है और संघर्ष की सम्भावनाओं का दूर होना ही विश्वशान्ति है। क्रोधादि कषायों की शान्ति उपशमभाव है। आत्मदोषों का निरीक्षण कर अपने दोषों की निन्दा करना ही निन्दा है। सम्पत्ति, बल और वैभव की उन्मत्तता की इच्छा से दूर रहना गर्दा है। प्राणिमात्र पर दया-प्रेम करना अनुकम्पा है। पूर्व महापुरुषों की वाणी पर आस्था रखकर लोक-परलोक, पुण्य-पाप पर आस्था रखना व आत्मा के अस्तित्त्व का नित्यत्व पर श्रद्धा रखना आस्तिक्य है। प्रत्येक बन्धु को वत्सलता की दृष्टि से देखने रूप वात्सल्य है। ये सभी गुण समुदाय रूप में ही नहीं किन्तु पृथक्-पृथक् एक-एक भी विश्वशान्ति स्थापित करने में पूरी तरह समर्थ हैं।७६। इति संवेगाद्यष्टगुणनिरूपणम् । प्रश्नः-सम्यक्त्वस्यातिचाराः के वद मे सिद्धये प्रभो। हे प्रभो! सम्यक्त्वस्य कानि दूषणानि तान्यपि कथय यतः मे सम्यक्त्वं निर्मलं स्यात् - हे भगवान् ! सम्यक्त्व के भूषणों का वर्णन तो हो चुका अब उसके दूषणों का भी वर्णन कीजिए ताकि उनको दूरकर हम सम्यक्त्व निर्मल बना सकें (अनुष्टुप्) शङ्का कांक्षा विचिकित्सा प्रशंसा संस्तवस्तथा। सदृष्टेरतिचारास्ते सम्यक्त्वं दूषयन्ति नु ।।७७।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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