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नैष्ठिकाचार
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एव एतानि इत्यपि कथनं समञ्जसमेव प्रतिभाति। व्यवहारेऽपि सर्वसाधारणप्राणिषु यदि ते गुणाः स्युस्तदा तेषां परस्परं प्रीतिकारकाः स्युः।७६।
श्रावकों के प्रबोध के लिए संवेगादि अष्ट गुणों का वर्णन जो पहले किया गया है वे गुण सम्यग्दृष्टि जीव के अवश्य होते हैं, क्योंकि सम्यक्त्व के उत्पन्न होने पर वे अवश्य पाये जाते हैं। यदि वे न हों तो सम्यक्त्व की भी हीनता हो जाय। ये गुण सम्यक्त्वरूपी वृक्ष के फल हैं, ऐसा भी कहा जाय तो उचित ही है। अतएव व्यवहार से संसार के साधारण मनुष्यों द्वारा भी यदि ये गुण अपना लिए जाँय तो परस्पर एक दूसरे के लिए अत्यन्त प्रीतिकारक सिद्ध होंगे।
विशेषार्थ- विश्वशान्ति की यह महौषधि है। वर्तमान काल में जो विभिन्न राष्ट्रों में अशान्ति की धारा बह रही है। उससे पद-पद पर युद्ध की आशंका बनी रहती है, जिससे सभी राष्ट्र एक दूसरे से भयभीत रहते हैं। इस भीति को दूर करने के लिए ये महागुण परम अमृत रसायन के समान हैं। यदि इनमें से एक संवेग' गुण को ही लोग अपना लें अर्थात् धर्म (कर्तव्य) से प्रीति और अधर्म से (अकर्तव्य) से अरुचि करने लगे तो पारस्परिक भीति दूर हो जाय। सभी विश्वशान्ति के इच्छुक हैं, फिर भी शान्ति नहीं है। उसका कारण क्या है? क्या विश्व के प्राणियों में अशान्ति को कोई विश्व के बाहर के प्राणी उत्पन्न करते हैं? उत्तर होगा नहीं। तब और क्या कारण है इस पर विचार किया जाय तो ज्ञात होगा कि एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्रों पर जो अविश्वास की छाया है वह उसे अशान्ति की शंका पद-पद पर उत्पन्न करती है। अविश्वास निष्कारण नहीं है। अविश्वास साधार है। उसका आधार है 'लोभ'। प्रत्येक अपने राज्य की परिधि बढ़ाने की फिकर में है। दूसरे राष्ट्रों पर अपना शासन दण्ड चलाना चाहता है। वहाँ की सम्पत्ति का उपभोग अपने देश के लिए करना चाहता है। इतना ही नहीं, वहाँ के लोगों के परिश्रम का उपयोग अपने देशवासियों के सुख के लिए करना चाहता है। प्रजातन्त्र राज्य की प्रणाली यद्यपि देश की प्रजा की सुख सुविधा के लिए थी, राज्य के ऊपर कोई व्यक्ति अपना व्यक्तिगत शासन स्थापित न करे तथा व्यक्तिगत सुख के लिए वह प्रजाजनों के स्वार्थ की होली न खेले, इसलिए प्रजातन्त्र का प्रयोग किया गया था। पर आज प्रजातन्त्र इस शब्द का उपयोग उस प्रणाली के लिए किया जा रहा है जिसे सामूहिक एकदेशीय स्वार्थ कहना अधिक उपयुक्त होगा। एक देश अपना स्वार्थ दूसरे देशवासियों को कष्ट में डाल कर भी साधना चाहता है। राजतन्त्र पद्धति में एक व्यक्ति की इच्छा की पूर्ति के लिए प्रजा को कष्ट होता था पर उस कष्ट की सीमा एक व्यक्ति के स्वार्थपूर्ति के बाद समाप्ति को
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