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नैष्ठिकाचार
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सत्य है कि सांसारिक स्नेह बन्धन केवल स्वार्थजन्य बन्धन है। पारस्परिक स्वार्थ के लिए शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। अपरिचितों में भी घनिष्ट परिचय हो जाता है। इतना होते हुए भी माता का अपने वत्स पर स्नेह का बन्धन निःस्वार्थ होता है।
मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी प्राणियों में यह नियम देखा जाता है। 'पुत्र कुपुत्र हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती' ऐसी लोकोक्ति प्रसिद्ध है। माता गर्भ समय से ही बालक की सुविधा का ध्यान रखती है। गर्भभार को वहन करते हुए भी प्रसन्नमुख रहती है। गरम, तीखा, चटपटा और अनिष्टकारक भोजन केवल इस लिए नहीं खाती कि वह गर्भस्थ बालक को हानिकारक होगा। पुत्रोत्पत्ति के बाद जब तक वह दुग्धपान करता है तब तक शीतकारक, उष्णकारक और गरिष्ठ भोजन केवल इस विचार से नहीं करती कि बालक को शीत या उष्णता का विकार हो जायगा। दुग्धपान छूट जाने पर भी उसकी सदा परिचर्या करती रहती है, उसके सुख-दुःख का ध्यान रखती है। यदि घर में धन भी न हो, दरिद्रता हो तो भी स्वयं मजदूरी करके धनोपार्जन करती है और स्वयं एक बार रूखा सूखा वासी अन्न खाकर भी बालक को उत्तम भोजन कराती है। बालक दुष्ट प्रकृति का भी हो जाय, अनादर भी करे, आज्ञा भी न माने तथा गाँव भर का उपद्रव कर उलाहना लावे तो भी माता उसे स्नेह करती है। विवाहित होने पर यदि पुत्र और पुत्रवधू दोनों निरादर करें, भोजन को भी तंग करें तो भी माता नित्य प्रातः सायं अपने पुत्र की, पुत्र के सुख के लिए पुत्रवधू की तथा उसके पुत्र-पुत्रियों की कुशलता और कल्याण की भावना पूर्वक परिचर्या करती रहती है। ___ वत्स के प्रति माता की इस निःस्वार्थ प्रीति ने इसीलिए अपना 'वात्सल्य' नाम पाया है। वात्सल्य शब्द के अर्थ में वे सब गुण छिपे हैं जो वत्स के प्रति माता की प्रीति में होते हैं या हो सकते हैं। कोई भी धर्मात्मा दूसरे धर्मात्मा के प्रति क्या व्यवहार रखे, कैसा बर्ताव करे इसके लिए आचार्यों ने सर्वत्र 'वात्सल्य' शब्द का ही उपयोग किया है। प्रीति के वाचक सैकड़ों शब्दों के रहते हुए उनमें से एक का भी प्रयोग नहीं किया है।
इसका तात्पर्य यह है कि कोई भी धर्मज्ञ सम्यग्दृष्टि दूसरे साधर्मी को देखकर इतना प्रसन्न हो जितना माता वत्स को देखकर होती है। उसके हित का और सुख-दुःख का उतना ही ख्याल रखे। उससे गलती भी हो जाय तो वह उसकी निन्दा नहीं करे और न दूसरों से की गई उसकी निन्दा को सहे। वह सदा उसके दोषों को दूर करने की सतत
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