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________________ ૧૦૨ श्रावकधर्मप्रदीप शास्त्रों में तथा उस परिशुद्ध मार्ग का सत्यार्थ रूप से अवलम्बन कर स्वात्मशोधक साधुओं में उसे परिपूर्ण श्रद्धा है। इस प्रकार इस जगत् के रहस्यभूत सब तत्त्वों के अस्तित्व को स्वीकार करने रूप 'आस्तिक्य' गुण को सद्दृष्टि प्राप्त होता है।७४। वात्सल्य गुण का स्वरूप (अनुष्टुप्) यः स्वात्मवत् सदा प्रीतिं करोति धार्मिकैः समम् । तस्य वात्सल्यधर्मः स्यात्सर्वप्राणिहितङ्करः।।७५।। यः स्वात्मवदित्यादि:- यः पुरुषः धार्मिकाणामुपरि प्रीतिं विधत्ते। तेषां विपत्तिनिवारणे सदा सन्नद्धो भवति। तेषां धर्मपरिपालने साहाय्यं करोति। तथा सदा स्वात्मवत् तेषामात्मसमुद्धरणे समुन्नतौ च प्रयत्नशीलो भवति, स एव वात्सल्यगुणवानस्ति।७५। प्रीति का प्रकर्ष इस जगत् में माता का पुत्र में होता है। यद्यपि पिता-पुत्र का, भाई-भाई का और पति-पत्नी का भी स्नेह सम्बन्ध होता है, किन्तु इन सब में प्रीति का भाव कुछ न कुछ स्वार्थमूलक है। पिता पुत्र के प्रति प्रेम करता है क्योंकि उसे यह भरोसा है कि यह हमारे कुल का नाम जागृत करेगा तथा वृद्धावस्था में मेरा सहायक होगा। यदि उसे पुत्र से इन दोनों बातों की कोई आशा न रह जाय तो वह उसे अपने घर से पृथक्कर देता है। भाई-भाई अर्थ के लिए लड़ते हैं। अर्थ के निमित्त से भाई-बहिन में भी खटपट हो जाती है। पति-पत्नी का स्नेह तो केवल पारस्परिक विषय पूर्ति के साधन होने से ही प्रारम्भ होता है। मध्यकाल में वह जीवन निर्वाह के लिए परस्पर साधन भूत होने से टिकता है और अन्त में सन्तान मोह ही उस स्नेह को टिकाता है। उक्त स्वार्थों के अभाव में वह कच्ची लकड़ी की तरह पद-पद पर चटकता है। यदि लोकलज्जा के भय की चिन्ता न हो तो वह बिलकुल ही टूट सकता है। पुत्र भी माता को तब तक अधिक स्नेह करता है जब तक माता दुग्धपान कराती है। भोजन का साधन अन्नादि हो जाने पर स्नेह की मात्रा घटने लगती है। अवस्था बड़ी होने पर वह अपने स्वार्थ के लिए माता का अनादर भी करता है तथा आज्ञा के बहिर्मुख हो जाता है। विवाहित हो जाने पर वह विषयान्ध पत्नी का दास हो माता को बिल्कुल भूल जाता है और माता के भोजन का खर्च भी उसे भार रूप मालूम होने लगता है। वह स्वयं माता का अनादर करने लगता है। इतना ही नहीं, बल्कि पत्नी द्वारा भी माता का निरादर होने पर उसकी उपेक्षा करता है तथा माता को ही दोष देने को प्रस्तुत रहता है। इन सब बातों के विचार से यह ध्रुव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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