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________________ नैष्ठिकाचार lolo प्रश्न:-चिह्नं बलमदस्यास्ति ब्रूहि मे शान्तये गुरो। हे गुरो! बलमदस्य कानि चिह्नानि इति मे शान्तिलाभाय कथय। हे श्रेष्ठ! बल का मद कैसा होता है उसका क्या फल है, मुझे शान्तिलाभार्थ उसका स्वरूप प्रतिपादन कीजिए (वसन्ततिलका) दीनात्मरक्षणत एव सुपुण्यतोऽपि, स्वर्मोक्षसाधकतमं लभते बलं ना। ज्ञात्वेति दीनजनरक्षणमेव कार्य दुःखप्रदो बलमदो न कदापि कार्यः।।४८।। दीनात्मेत्यादि:- लोके बलवतामुपयोगिता दीनातिरक्षणे एव मन्यते जनैः। तदुत्तमकार्यकरणादेव सुपुण्यतः समुत्पन्नपुण्यतः ना पुरुषः स्वर्गमोक्षसाधकं बलं लभते। इति ज्ञात्वा दीनजनरक्षणं दीनाश्च ते जनाश्च तेषां रक्षणं विपत्तिदूरीकरणं रूग्णावस्थायां शारीरिकसेवाकरणं अन्यैर्बलवद्भिः पीडिते सति तत्साहाय्यकरणमेव कार्यम् । अहं बलवानस्मि को नाम मत्समक्षे स्थातुं समर्थोस्ति ? अन्यैस्तु निर्बलैर्मत्सेवैव करणीया अन्यथा तेषां विनाश एव समुपस्थितो भविष्यति इति बलमदेन अन्यतिरस्करणं न्यायातिक्रमेण तेषामधिकारहापनं दुःखप्रदमस्ति इति ज्ञात्वा कदापि बलमदो न कार्यः।४८। बलवान् पुरुषों के बल की उपयोगिता दीन, निर्बल और त्रस्त लोगों के रक्षण में ही संसार में मानी जाती है। इस परमोत्तम कार्य के द्वारा उत्पन्न श्रेष्ठ पुण्य के द्वारा ही उत्तम गति के साधन प्राप्त होते हैं और परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का यह सामान्य कर्तव्य है कि अपनी शक्ति का उपयोग सदा उन प्राणियों के रक्षण में करे जिनका जीवन ही एक मात्र धन है। उनकी विपत्तियों का दूर करना, रूग्णावस्था में उनकी शारीरिक सेवा करना, दूसरे बलवानों के द्वारा सताए जानेवाले निर्बलों की सहायता करना इत्यादि अनेक सदुपायों से उनकी रक्षा करनी चाहिए। ____ मैं बलवान् हूँ, मेरे सामने कौन ठहर सकता है, निर्बलों को मेरी सेवा करनी होगी, नहीं तो वे तकलीफ में डाल दिए जाँयगे। उनका विनाश कर दूंगा। इत्यादि कुभावों के द्वारा अपनी शक्ति का अनुचित अहंकार कर दूसरों का तिरस्कार करना, न्याय मार्ग का उल्लंघन कर उनके अधिकार छीनना, उनपर अपनी सत्ता जमाना, अपना प्रभुत्व स्थापन करना, यह सब "बलमद" है। बलमदवाला पुरुष अन्याय के मार्ग पर जाता है, हिंसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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