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________________ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका अनित्यत्व ये दो विरोधी धर्म कैसे सम्भव हैं । इस सन्दर्भमें कहा गया है कि हे भगवन् ! आपके मतमें एक ही वस्तुमें नित्यत्व और अनित्यत्व इन दोनों धर्मों के रहनेमें कोई विरोध नहीं है। इस बातको इस प्रकार समझाया गया है । ऊपरके श्लोकमें जो निमित्त शब्द है उसका अर्थ है-कारण । कारण दो प्रकारका होता है-बहिरंग ( सहकारी ) कारण और अन्तरंग ( उपादान ) कारण । इन दोनों कारणोंसे जो कार्य उत्पन्न होता है वह नैमित्तिक ( निमित्त जन्य ) कहलाता हैं । घटको उत्पत्तिमें दण्ड, चक्र, कुलाल आदि सहकारी कारण हैं और मिट्टी उपादान कारण है। उपादान कारण स्वयं कार्यरूपमें परिणत हो जाता है किन्तु सहकारी कारण स्वयं कार्यरूपमें परिणत नहीं होता है। उक्त दोनों कारणोंका कार्यके साथ जो सम्बन्ध है उससे एक ही वस्तुमें नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों धर्म एक साथ रहते हैं।। उपर्युक्त कथनका निष्कर्ष यह है कि द्रव्यरूप उपादान कारणके योग (सम्बन्ध)से वस्तुमें नित्यत्व है और क्षेत्रादिरूप सहकारी कारणोंके योगसे तथा पर्यायरूप कार्यके योगसे वस्तुमें अनित्यत्व है । द्रव्य सदा अपरिवर्तनीय रहता है, किन्तु क्षेत्रादि सहकारी कारण और द्रव्यकी पर्यायें बदलती रहती हैं। इसलिए उपादान कारण द्रव्यके सम्बन्धसे वस्तु नित्य है और सहकारी कारण तथा पर्यायोंके सम्बन्धसे वही वस्तु अनित्य है। इस प्रकार एक ही वस्तुमें नित्यत्व और अनित्यत्वके रहने में कोई विरोध नहीं हैं । अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं वृक्षा इति प्रत्ययवत् प्रकृत्या। आकांक्षिणः स्यादिति वै निपातो गुणानपेक्षे नियमेऽपवादः ॥ ४ ॥ सामान्यार्थ--पदका वाच्य, वृक्ष इस पद ज्ञानकी तरह, स्वभावसे एक और अनेक दोनों होता है । विरोधी धर्मकी आकांक्षा रखनेवाले वक्ताका ‘स्यात्' यह निपात शब्द गौणकी अपेक्षा न रखनेवाले नियम ( सर्वथा एकान्त कथन ) में निश्चितरूपसे अपवाद ( बाधक ) होता है। विशेषार्थ-यहाँ यह बतलाया गया है कि पद का वाच्य एक और अनेक दोनों होता है। व्याकरणकी दृष्टिसे वृक्ष, मनुष्य, घट, पट आदि पद कहलाते हैं । पदको शब्द भी कहते हैं। पद वाचक होता है और पदके द्वारा जिस वस्तुको कहा जाता है उसे वाच्य कहते हैं। घट शब्द वाचक है और घट अर्थ उसका वाच्य है । जिस शब्द का जिस अर्थमें संकेत ग्रहण हो जाता है उस शब्दके द्वारा उस अर्थका बोध होता है। बालकको जब गाय शब्दका गाय अर्थमें संकेत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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