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________________ श्री चन्द्रप्रभ जिन स्तवन ७५ है। उनका शासन (उपदेश) चार गतियोंमें होनेवाले समस्त दुःखोंका सब प्रकारसे क्षय करनेवाला है । तात्पर्य यह है कि चन्द्रप्रभ भगवान्के उपदेशको सुनकर और तदनुकूल आचरण करके भव्य जीव संसारके परिभ्रमणसे मुक्त हो जाते हैं । स चन्द्रमा भव्यकुमुद्वतीनां विपन्नदोषाभ्रकलङ्कलेपः । व्याकोशवान्यायमयूखमालः पूयात् पवित्रो भगवान् मनो मे ॥ ५ ॥ (४०) सामान्यार्थ-जो भव्य जोवरूप कुमुदिनियोंके लिए चन्द्रमा हैं, जो रागादि दोषरूप मेघ कलंकसे रहित हैं, जो सुस्पष्ट वचनोंके द्वारा उत्पन्न न्यायरूप किरणोंकी मालासे युक्त हैं और जो पवित्र हैं, ऐसे चन्द्रप्रभ भगवान् मेरे मनको पवित्र करें । विशेषार्थ-यहाँ चन्द्रप्रभ भगवान्को रूपकालंकारसे चन्द्रमा कहा गया है । रात्रिमें चन्द्रमाका उदय होनेपर कुमुदनियोंका विकास होता है । दिनमें सूर्य द्वारा कुमुदोंका विकास होता है और रात्रि में चन्द्र द्वारा कुमुदनियोंका विकास होता है । चन्द्रप्रभ भगवान्के द्वारा भव्य जीवरूप कुमुदनियोंका विकास होनेके कारण उनको चन्द्रमा कहा गया है। आकाशमें स्थित चन्द्रमा रात्रि में मेघरूप कलंकके आवरणसे आच्छादित हो जाता है तथा उसमें मृगछालाका कलंक भी विद्यमानरहता है। किन्तु आत्मामें मेघ कलंकके समान जो राग-द्वेषादिरूप दोष हैं उनः दोषोंको चन्द्रप्रभ भगवान्ने नष्ट कर दिया है, इसलिए वे सर्वथा निष्कलंक हैं । चन्द्रमा किरणों की मालासे युक्त होता है । चन्द्रप्रभ भगवान् भी अत्यन्त स्पष्ट वचनोंके प्रणयन रूप (स्याद्वाद न्यायरूप) किरणों की मालासे शोभायमान हैं । उन्होंने तत्त्वोंका जो प्रणयन किया है वह प्रमाण और नयके द्वारा किया है । उनका वाङ्न्याय स्याद्वादन्याय है। चन्द्रमा कलंकित होनेसे अपवित्र है, किन्तु कर्मकलंकसे सर्वथा रहित होनेके कारण श्री चन्द्रप्रभ जिन सर्वथा पवित्र हैं । ऐसे चन्द्रप्रभ भगवान् मेरे मनको पवित्र करें। यहाँ स्तुतिकारने चन्द्रप्रभ भगवान्से किसी भौतिक वस्तुकी कामना नहीं की है । उन्होंने केवल यही कहा है कि श्री चन्द्रप्रभ जिन मेरे मनको पवित्र करें। अर्थात् उसे रागद्वेषादि विकार भावोंसे मुक्त कर निर्मल करें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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