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________________ ७४ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका सामान्यार्थ--जो सर्वलोकमें परमेष्ठिताके पदको प्राप्त हुए थे, जो अद्भुत कर्मतेजके धारक थे, जिन्होंने अनन्त तेजरूप अविनाशी विश्वचक्षु (केवलज्ञान) को प्राप्त किया था और जिनका शासन समस्त दुःखोंका क्षय करनेवाला था, ऐसे थे भगवान् चन्द्रप्रभ । विशेषार्थ-जो परम पदमें स्थित होता है उसे परमेष्ठी कहते हैं । परमेष्ठी पाँच होते हैं-अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मोका नाश हो जाने पर तेरहवें गुणस्थानमें अरहन्त परमेष्ठी पद प्राप्त होता है । अरहन्त परमेष्ठोके ४६ मूलगुण होते हैं । ४ अनन्तचतुष्टय, ८ प्रातिहार्य और ४ अतिशय ये ४६ मूलगुण हैं । जन्मके १० अतिशय, केवलज्ञानके १० अतिशय और देवकृत १४ अतिशय । इस प्रकार कुल ३४ अतिशय होते हैं। चौदहवें गुणस्थानके अन्त समयमें वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु इन चार अघातिया कर्मोका क्षय हो जाने पर सिद्ध परमेष्ठी पद प्राप्त होता है । सिद्ध परमेष्ठीके ८ मूलगुण होते हैं जो इस प्रकार हैंसम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अव्याबाधित्व और अनन्तवीर्य । __ आचार्य परमेष्ठी संघके अधिपति होते हैं। संधमें अनुशासन रखना इनका प्रधान कर्तव्य है । दीक्षा, प्रायश्चित्त आदिका कार्य भी इन्हींके द्वारा सम्पन्न होता है । इनके ३६ मूलगुण होते हैं जो इस प्रकार हैं- १० धर्म, १२ तप, ६ आवश्यक, ३ गुप्ति और ५ आचार । उपाध्याय परमेष्ठी ११ अंग और चौदह पूर्वके पाठी होते हैं । वे स्वयं पढ़ते हैं और अन्य भव्य जीवोंको पढ़ाते हैं । इनके ११ अंग और १४ पूर्व ये २५ मूलगुण होते हैं । साधु परमेष्ठी उन्हें कहते हैं जो सब प्रकारके आरंभ और परिग्रह से रहित होकर सदा ज्ञान और ध्यान में लोन रहते हैं। इनके २८. मूलगुण होते हैं जो इस प्रकार हैं--५ महाव्रत, ५ समिति तथा वस्त्र त्याग, स्नान त्याग, केशलोंच, पाँचों इन्द्रियोंको वशमें रखना, दिनमें एक बार खड़े-खड़े भोजन ग्रहण करना, भूमि पर शयन करना इत्यादि १८ अन्य मूलगुण । पांचों परमेष्ठियोंमें अरहन्त परमेष्ठीका नाम प्रथम है । जब चन्द्रप्रभ भगवान् अर्हन्त हो गये तब उन्होंने त्रिभुवनमें परमेष्ठिता (परमाप्तता) के पदको प्राप्त कर लिया था। उनका कर्मतेज आश्चर्य जनक था। उन्होंने कर्म (कठोर तपश्चरण) के द्वारा केवलज्ञानरूप तेजको प्राप्त किया था। अथवा उनका केवलज्ञानरूप तेज सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रबोधन व्यापाररूप कर्ममें निमित्तभूत था। केवलज्ञानरूप अविनश्वर तेज ही समस्त लोकालोकको प्रकाशित करनेवाला उनका चक्षु है। वे केवलज्ञानरूप चक्षुके द्वारा विश्वके समस्त पदार्थोंको देखते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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