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________________ ७२ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका हो जाता है वह स्वन्त कहलाता है । कषायबन्धनका विनाश सरलतासे नहीं होता है । अतः वह अस्वन्तकषायबन्धन है। और श्री चन्द्रप्रभ जिन ऐसे कषायबन्धन को जीतनेवाले हैं । सांख्य मत में प्रकृतिके विकाररूप मनको स्वान्त कहते हैं । उस मनका क्रोधादि कषायोंके द्वारा बन्धन किया जाता है, आत्माका नहीं । ऐसा सांख्यका मत है। 'जितास्वान्तकषायबन्धम्' इस पाठके द्वारा सांख्य मतका निराकरण किया गया है । अर्थात् स्वान्त (मन) का कषायोंके द्वारा बन्धन नहीं होता है, किन्तु अस्वान्त (आत्मा) का कषायोंके द्वारा बन्धन होता है । चन्द्रप्रभ भगवान् आत्माके उक्त प्रकारके कषाय बन्धन को जीतनेवाले हैं । मैं ऐसे चन्द्रप्रभ भगवान् की वन्दना करता हूँ। यस्याङ्गलक्ष्मीपरिवेषभिन्न तमस्तमोऽरेरिव रश्मिभिन्नम् । ननाश बाह्यं बहु मानसं च ध्यानप्रदीपातिशयेन भिन्नम् ॥ २ ॥ सामान्यार्थ-जिनके शरीरके दिव्य प्रभामण्डलसे विदीर्ण बाह्य अन्धकार और जिनके ध्यानरूप प्रदोपके अतिशयसे विदोर्ण अनेक प्रकारका मानसिक अज्ञानान्धकार उसी प्रकार नष्ट हो गया था जिस प्रकार सूर्यको किरणोंसे विदीर्ण होकर रात्रिका अन्धकार नष्ट हो जाता है। विशेषार्थ-जब सूर्योदय होता है तब उसकी तेज किरणोंसे लोकमें फैला हुआ रात्रिकालीन अन्धकार छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो जाता है। सूर्य केवल बाह्य अन्धकारका नाशक है। किन्तु चन्द्रप्रभ भगवान् बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारके अन्धकारके नाशक हैं। उनके शरीरकी परम कान्तिके प्रभामण्डल द्वारा निकटवर्ती बाह्य अन्धकार नष्ट हो जाता है । अर्थात् उनके शरीरसे निकलनेवाली दिव्य ज्योतिके समक्ष रात्रिकालीन बाह्य अन्धकार पलायित हो जाता है । इसी प्रकार उनके शुक्लध्यानरूपी प्रदीपके परम प्रकर्षरूप अतिशयके द्वारा ज्ञानावरणादि कर्मजन्य आत्माका समस्त आभ्यन्तर अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है । जब शुक्लध्यानका परम प्रकर्ष होता है तब ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं और केवलज्ञानरूप सूर्यका उदय हो जाता है। इस कारण उस समय उनकी आत्मामें प्रचुर मात्रामें विद्यमान आभ्यन्तर अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। श्री चन्द्रप्रभ जिन केवल अपने अज्ञानान्धकारको ही नष्ट नहीं करते हैं किन्तु धर्मोपदेश द्वारा भव्य जीवोंके अज्ञानान्धकारको भी नष्ट करते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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