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________________ संस्कृत टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्यने उसे "निःशेषजिनोक्तधर्मविषयः" कहते हुए, उसे "सूक्तार्थैरमलैःस्तवोऽयमसमः स्वल्पैः प्रसन्नैः पदैः" बतला कर उसके उच्च आदर्श एवं गौरवको मुखरित किया है। उक्त कृतिके रचना-चातुर्यसे समन्तभद्र की काव्य-प्रतिभाका भी परिचय मिलता है, क्योंकि उसकी अलंकृत काव्य-शैली, विलक्षण शब्द-विन्यास, छन्द-वैविध्य, संगीतात्मक आरोह-अवरोह तथा भावप्रवण अर्थ-गाम्भीर्य उत्कृष्ट श्रेणीके कवियोंमें भी समन्तभद्र की पहिचान पृथक् रूपसे कराने में सक्षम है। उसमें प्रयुक्त छन्दोंमें वंशस्थ, उपजाति, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, रथोद्धता, वसन्ततिलका, पथ्यावक्त्रअनुष्टुभ, सुभद्रिका-मालतीमिश्रयमक, वानवासिक, वैतालीय, शिखरणी, उद्गता, आर्यागीति (स्कन्धक) आदि तथा अलंकारों की दृष्टिसे इसमें उपमा, रूपक आदि अर्थालंकारों और अनुप्रास, यमक आदि शब्दालंकारोंसे सनाथ यह रचना विशिष्ट कोटि की बन पड़ी है । महाभारत सम्बन्धी जैनकथाके बीज-सूत्रों की दृष्टिसे भी यह रचना कम महत्त्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि इसमें सम्भवतः सर्वप्रथम गरुडध्वज (नारायण-कृष्ण) और हलधर (बलभद्र) एवं रैवतक गिरिका उल्लेख किया गया है। गरुडध्वज एवं हलधरको अरिष्टनेमिजिनके चरणारविन्दमें प्रणाम करने वाला बतलाया गया है। यह सन्दर्भ जैन महाभारतकथाके उद्भव एवं विकासके लेखनमें विशेष रूपसे सहयोगी सिद्ध होगा। स्वामी समन्तभद्रका भाषा एवं विषयपर इतना अधिकार था कि उन्होंने अपनी रचनाओंमें अतिसंक्षिप्त शब्दोंमें भी जैनागमोंका सार भर दिया । उदाहरणार्थ उनकी एक ही कृति "देवागम-स्तोत्र"को लें। उसमें कुल १४४ कारिकाएँ है । उनका विशदार्थ करनेके लिए महान शास्त्रार्थज्ञ एवं दार्शनिक भट्टाकलंकदेवने “अष्टशती” नामक ८०० श्लोक प्रमाण टीका लिखी। किन्तु उससे भी जब जनसामान्यको उसका अर्थ स्पष्ट न हो सका, तब आचार्य विद्यानन्दने उसपर "अष्टसहस्री" नामकी ८ हजार श्लोक वाली संस्कृत-टीका लिखी। फिर भी वह विषय दुरूह ही बना रहा । अतः उसे सर्वभोग्य बनाने की दृष्टिसे उसपर भी ८ हजार श्लोकोंके बराबर संस्कृतटिप्पण लिखे गये, फिर भी वह विषय जटिल ही बना हुआ है। ___समन्तभद्रके रचनाकालके विषयमें कुछ समय पूर्व तक अनेक भ्रान्तियाँ थीं किन्तु पं० जुगलकिशोर मुख्तार एवं पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य प्रभृति महारथी विद्वानोंने आचार्य पूज्यपाद कृत जैनेन्द्र व्याकरणके "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" (४/५/१९०) नामक उल्लेख तथा अन्य साक्ष्योंके आधार पर उनका समय विक्रम संवत् की दूसरी सदी निश्चित किया है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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