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________________ स्वामी समन्तभद्र अपने जीवन में निरन्तर ही निर्भीक एवं साहसी बने रहे । उन्होंने अपनी गहन साधनासे सरस्वतीको भी अपने वशमें कर लिया था। इसीलिए गद्यचिन्तामणिकारने उन्हें "सरस्वतीस्वैर विहारभूभयः" तथा प्रतिवादियोंको पराजित करनेके कारण उन्हें “वाग्वज्रनिपातपाटितप्रतीपपराद्धान्तमहीध्रकोटयः" कहा है । संक्षेपमें कह सकते हैं कि स्वामी समन्तभद्रका यह दृढ़ आत्म-विश्वास श्रमण संस्कृतिके उद्धारका ऐतिहासिक प्रतीक बन गया। ___जैन इतिहासमें दो ही कवि ऐसे मिलते हैं, जिन्होंने विपक्षियों को ताल ठोककर चुनौती स्वीकार की थी, उनमें सर्वप्रथम स्वामी समन्तभद्र थे और सम्भवतः इन्हींसे प्रभावित थे-८ वीं-९ वीं सदी के अपभ्रंश महाकवि पुष्पदन्त, जिनके कई विशेषणोंमें से एक विशेषण "अभिमानमेरु" भी मिलता है। स्वामी समन्तभद्र अपने विषयमें स्वयं ही कहते है कि “मैंने सबसे पहले पाटलिपुत्रनगरमें शास्त्रार्थके लिए डंका पीटा, पुनः मालवा, सिन्धु, ठक्क (ढाका-बंगलादेश), कांचीपुर तथा विदिशा और बादमें अनेक विद्वानोंसे सनाथ कर्नाटकमें भी भेरी बजाई और इसी प्रकार मैं शास्त्रार्थ करनेके लिए सिंहके समान इधर-उधर क्रीड़ाएँ करता रहा।" वस्तुतः यह उनकी गर्वोक्ति नहीं, बल्कि अपने अगाध-पाण्डित्यके प्रति अखण्ड आत्मविश्वास था और इसके चलते उन्होंने समकालीन अनेक गर्वीले एवं हठीले प्रतिपक्षी शास्त्रार्थियों को भी नतमस्तक कर दिया था। प्रस्तुत गौरवपूर्ण रचना पर यद्यपि अन्य विद्वानोंने भी टीकाएँ लिखी हैं, फिर भी यह प्रसन्नताका विषय है कि भारतीय दर्शनों, विशेष रूपसे जैन-दर्शनके अधिकारी विद्वान् प्रो० उदयचन्द्रजीने परम पूज्य आचार्य विद्यासागरजी की पावन प्रेरणा से उस पर "तत्त्वप्रदीपिका" नामकी हिन्दी व्याख्या तथा सारभूत प्रस्तावना लिखकर विषय को सरस और सुबोध बनाने का प्रयत्न किया है । हमें पूर्ण विश्वास है कि इससे स्वाध्यायार्थी एवं शोधार्थी दोनों ही लाभान्वित होंगे। प्रो० सा० की इस रचना का प्रकाशन करने में संस्थान गौरव का अनुभव करता है तथा आशा करता है कि वे संस्थान को आगे भी अपनी वैदुष्यपूर्ण कृतियाँ प्रदान करते रहने की कृपा करते रहेंगे । महाजन टोली नं. २ आरा (बिहार) दिनांक ४/९/९३ प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन ग्रन्थमाला सम्पादक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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