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________________ श्री अभिनन्दन जिन स्तवन ततो गुणो नास्ति च देहदेहिनो - 4 रितीदमित्थं भगवान् व्यजिज्ञपत् ॥ ३ ॥ सामान्यार्थ - क्षुधा, तृषा आदिके दुःखोंका प्रतिकार करनेसे और इन्द्रियोंके 'विषयों द्वारा जन्य स्वल्प सुखसे देह और देही (आत्मा) का सुखपूर्वक सदा अवस्थान नहीं रहता है । इसलिए उनके द्वारा देह और देहीका कोई गुण ( उपकार ) नहीं होता है । इस प्रकार अभिनन्दननाथ भगवान् ने इस जगत्‌को देह और देही के विषय में वास्तविक स्थितिका ज्ञान कराया था । विशेषार्थ - संसार के प्राणी क्षुधा, तृषा आदिके दुःखों से सदा पीड़ित रहते हैं । इन दुःखोंका प्रतिकार करनेके लिए प्रयत्न भी किया जाता है। भोजन - करने से क्षुधाका प्रतिकार हो जाता है और जलादिका पान करनेसे तृषाका प्रति- कार हो जाता है । यहाँ विचारणीय यह है कि क्षुधा आदिका प्रतिकार स्थायी अनुभव सिद्ध है लिए ही होता है। कि भोजनादिके कुछ समय बाद • होता है अथवा अस्थायी होता है । यह बात - द्वारा क्षुधा आदिका प्रतिकार कुछ समय के - पुनः क्षुधा आदि की वेदना उत्पन्न हो जाती है और पुनः उसका प्रतिकार किया जाता है । यह क्रम जीवन पर्यन्त चलता रहता है । फिर भी देह और देही ( आत्मा ) की समस्याका स्थायी समाधान नहीं होने से उनकी स्थिति सदा सुखपूर्वक नहीं रहती है । इसी प्रकार स्पर्शनादि पञ्च इन्द्रियोंके स्पर्श आदि विषयोंके सेवनसे आत्माको जो किंचित् सुखका अनुभव होता है, वह भी क्षणिक है । इससे कभी भी पूर्ण तथा स्थायी तृप्ति नहीं होती है । इन्द्रिय जन्य सुख विषयाभिलाषाको और भी अधिक प्रदीप्त कर देता है, जिससे प्राणी उसकी पूर्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है । किन्तु उसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती है । इस कारण संसारी प्राणी सदा संतप्त रहता है । अतः इन्द्रियोंके विषयोंसे जन्य स्वल्प सुखसे देह और देही की स्थिति सदा सुखपूर्वक नहीं रहती है । यही कारण है कि क्षुधादि दुःखोंके प्रतिकारसे और इन्द्रिय विषय जन्य स्वल्प सुखसे शरीर और आत्माका कुछ भी उपकार ( भला ) नहीं होता है । तात्पर्य यह संसारके परिभ्रमण से कभी नहीं छूट सकता है । घटाकर परम कल्याणकारी अनासक्ति योग की ओर ध्यान देना चाहिए । श्री : अभिनन्दन जिनने इसी बातको भली भाँति समझाया था । है कि ऐसा करते हुए आत्मा इसलिए इन्द्रिय विषयोंसे राग जनोऽतिलोलोऽप्यनुबन्धदोषतो भयादकार्येष्विह न ४७ Jain Education International प्रवर्तते । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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