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________________ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग करके पूर्ण निर्ग्रन्थ अवस्थाको प्राप्त हुए थे। अचेतने तत्कृतबन्धजेऽपि च ममेदमित्याभिनिवेशिकग्रहात् । प्रभगुरे स्थावरनिश्चयेन च क्षतं जगत्तत्त्वमजिग्रहद्भवान् ॥ २॥ सामान्यार्थ-हे अभिनन्दन जिन ! अचेतन शरीरमें और अचेतनकृत कर्मबन्धसे उत्पन्न सुख-दुःखादिमें तथा स्त्री-पुत्रादिमें यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हैं, इस प्रकारके विपरीत अभिप्रायको ग्रहण करनेसे तथा क्षणभंगुर पदार्थों में स्थायित्वका निश्चय करनेसे नष्ट हो रहे जगत्को आपने तत्त्वका ग्रहण कराया था। विशेषार्थ-यह शरीर पौद्गलिक होनेसे अचेतन है । संसारी जीव अनादिकालीन मिथ्यात्वके कारण इस अचेतन शरीरमें यह मेरा शरीर है, यह काला है, यह गोरा है, इत्यादि नाना प्रकारका विकल्प करता है। जिस कर्मके द्वारा आत्माका बन्ध होता है वह कर्म भी अचेतन है । अचेतन कार्मण वर्गणाओं द्वारा आत्माका बन्ध किया जाता है। अतः द्रव्यकर्म अचेतन है । इस कर्मबन्धसे उत्पन्न सुखदुःखादिमें यह जीव मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, इत्यादि प्रकारका विकल्प करता है। इस प्रकारका विकल्प भी विपरीत अभिप्रायरूप मिथ्यात्वके कारण होता है । क्योंकि कर्मबन्धजन्य सुख-दुःखादि विभावरूप होनेसे आत्माके स्वभाव नहीं हैं । उनको आत्मस्वभावरूप समझना मिथ्या अभिनिवेश है । इसी प्रकार कर्म सम्बन्धसे प्राप्त स्त्री, पुत्र, धनादि परपदार्थों में यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ, इस प्रकारका विकल्प भी मिथ्यात्वका सूचक है। जो स्पष्ट रूपसे पर है उस पर आत्माका अधिकार कैसे हो सकता है। इसी प्रकार यह जीव क्षणभंगुर पदार्थोंको मिथ्या अभिनिवेशके कारण स्थायी समझता है । पर्यायाथिकनयकी दृष्टिसे प्रत्येक पदार्थकी पर्याय अस्थायी है। उसमें स्थायित्वका निश्चय सही नहीं है। अतः उपर्युक्त मिथ्या अभिनिवेशके कारण यह जगत् (जीव जगत्) नष्ट हो रहा है। अर्थात् अज्ञानके कारण वह अपना अकल्याण कर रहा है । ऐसे इस जगत्को श्री अभिनन्दन जिनने जीवादि तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूप को बतला कर सन्मार्ग पर लगाया था। क्षुदादिदुःखप्रतिकारतः स्थिति नचेन्द्रियार्थप्रभवाल्पसौख्यतः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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