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________________ श्री शम्भव जिन स्तवन 'प्रायः समस्त संसारी जन अहंकार-ममकारके कारण मिथ्या अभिनिवेशरूप दोषसे दूषित हैं। इसी प्रकार वे जन्म, जरा और मरणके दुःखोंसे सदा पीड़ित रहते हैं । ऐसा कोई भी संसारी जीव नहीं है जो जन्म, जरा और मरण के दुःखों से मुक्त हो। ___ ऐसे इस जगत्के नाना प्रकार के दुःखोंसे पीड़ित प्राणियों को श्री शंभव जिनने मोक्षका मार्ग बतलाकर कर्मकलंकसे रहित मुक्ति स्वरूप शान्तिकी प्राप्तिका उपाय बतला दिया है । जो भी भव्य जीव उनके द्वारा बतलाये गये शान्तिके मार्ग पर चलते हैं उन्हें अवश्य ही निष्कलंक चिर शान्ति की प्राप्ति होती है । शतहदोन्मेषचलं हि सौख्यं तृण्णामयाप्यायनमात्रहेतुः । तृष्णाभिवृद्धिश्च ‘तपत्यजत्रं __ तापस्तदायासयतीत्यवादीः ॥३॥ सामान्यार्थ--इन्द्रियजन्य सुख बिजलीके उन्मेषके समान चंचल है तथा तृष्णारूप रोगकी अभिवृद्धिमात्रका कारण है। तृष्णाकी अभिवृद्धि निरन्तर ताप उत्पन्न करती है और वह ताप संसारके प्राणियोंको दःखोंकी परम्परा द्वारा 'पीड़ित करता रहता है । ऐसा शंभव जिनने कहा है । विशेषार्थ-शंभवनाथ भगवान्ने दुःखके यथार्थ निदानको बतलाते हुए कहा है कि इन्द्रिय जन्य सुख बिजलीको चमकके समान चंचल है। वर्षा ऋतुमें जब बादलोंके घर्षणसे बिजली चमकती है तब सब के अनुभव में आता है कि बिजलीकी चमक कितनी क्षणिक है। इसी प्रकार इन्द्रिय जन्य सुख भी थोड़े समयके लिए ही होता है, स्थायी नहीं है। कर्माधीन होने के कारण वह अन्त सहित है तथा बीच-बीचमें वह शारीरिक और मानसिक दुःखोंसे मिश्रित भी होता रहता है । इतना ही नहीं, वह सुख तृष्णारूप रोगकी अभिवृद्धिका कारण भी होता है । संसारके प्राणियों में सांसारिक सुखोंकी प्राप्तिके लिए जो तीव्र इच्छा होती है वही तृष्णा है । यह तृष्णा एक प्रकारका रोग है जिसकी चिकित्सा सरल नहीं है। इन्द्रियोंके विषयोंके सेवनसे तृष्णाकी शान्ति नहीं होती है, प्रत्युत उसकी अभिवृद्धि ही होती है । जितनी मात्रामें विषयोंका सेवन किया जाता है उतनी ही मात्रामें तृष्णाकी वृद्धि होती जाती है। और यह तष्णाकी अभिवृद्धि प्राणियोंमें लगातार संताप उत्पन्न करती रहती है। इस प्रकार संसारके प्राणी तृष्णा जन्य तापसे निरन्तर तपते रहते हैं। तात्पर्य यह है कि तृष्णाके कारण दुःखोंको परम्पराका कभी अन्त नहीं होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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