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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका
___ यहाँ स्तुतिकारने तृतीय जिनका नाम शम्भव बतलाया है। किन्तु वर्तमानमें उनका संभवनाथ नाम प्रचलित है। दोनों नामोंमें कोई विशेष अन्तर नहीं है । संभवका अर्थ संसार होता है। अतः जो संसारका नाथ ( स्वामी ) है वह संभवनाथ कहलाता है।
अनित्यमत्राणमहंक्रियाभिः
प्रसक्तमिथ्याध्यवसायदोषम् । इदं जगज्जन्मजरान्तकात
निरज्जनां शान्तिमजीगमस्त्वम् ॥ २ ॥ सामान्यार्थ-हे शंभव जिन ! यह जगत् अनित्य है, अशरण है, अहंकारममकारको क्रियाओंसे युक्त मिथ्या अभिनिवेशरूप दोषसे दूषित है तथा जन्म, जरा और मरणसे पीड़ित है । ऐसे इस जगत्को आपने कर्म कलंकसे रहित शान्ति की प्राप्ति कराई है।
विशेषार्थ--यह जगत् विनश्वर है। यहाँ जगत्से तात्पर्य जीव समूहसे है । यद्यपि संसारमें जितने पदार्थ हैं वे सब पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य हैं, तथापि यहाँ संसारी प्राणियोंके विषयमें विचार किया गया है। जो जोव मनुष्य पर्यायमें उत्पन्न हुआ है उसको मनुष्य पर्याय स्थिर नहीं है । वह विनश्वर है, क्षणभंगुर है तथा निश्चित समयपर उसका नाश अवश्यम्भावी है । मृत्यु एक शाश्वत सत्य है । उससे किसी भी प्रकार बचा नहीं जा सकता है। इसी प्रकार यह जीवन अशरण है । माता-पिता, परिवार के लोग, अथवा कोई देवी-देवता, यहाँ तक कि जिनेन्द्र देव भी किसो जीवके जीवनरूप मनुष्यादि पर्यायकी रक्षा नहीं कर सकते हैं । संयोगों और पर्यायोंको सुरक्षा किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है । यद्यपि संसारमें मणि, मन्त्र, तन्त्र आदि अनेक उपायोंका प्रयोग जीवनकी रक्षाके लिए किया जाता है, फिर भी मरते समय इस जीवको कोई भी नहीं बचा पाता है । अतः यह जीवन अशरण है। __इसी प्रकार यह जीव संयोगों और पर्यायोंमें अहंकार और ममकार करता हुआ मिथ्या अभिप्रायके कारण अपनेको बाह्य पदार्थों का कर्ता-धर्ता मान रहा है । यह उसका बड़ा भारी दोष है और प्रत्येक जीव इस दोषसे दूषित है । मैं स्त्री, पुत्र, धन आदिका स्वामी हूँ, मैं इसका कर्ता हूँ, मैं इसका रक्षक हूँ, इत्यादि कल्पना करना अहंकार है । यह पुत्र मेरा है, यह मकान मेरा है, यह धन मेरा है, इत्यादि कल्पना करना ममकार है । अहंकार और ममकार का भाव मिथ्या अभिनिवेश (विपरीत अभिप्राय ) के कारण ही होता है । जिस जीवका अभिप्राय सम्यक् है वह बाह्य पदार्थों में कभी भी अहंकार-ममकार नहीं करेगा। तात्पर्य यह है कि
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