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________________ -24 स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ॥२॥ सामान्यार्थ-प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभ जिन प्रजापति थे। तत्त्वज्ञ होनेके कारण उन्होंने कर्मभूमिके प्रारम्भमें जीवित रहनेके इच्छुक प्रजाजनों को कृषि आदि छह प्रकारके कार्योंमें प्रशिक्षित किया था। तदनन्तर वे आश्चर्यकारी उदय को प्राप्त होते हुए भी हेय और उपादेय तत्त्वों को जाननेके कारण तथा तत्त्ववेत्ताओंमें श्रेष्ठ होनेके कारण सब प्रकारके ममत्वसे विरक्त हो गये थे। विशेषार्थ-जिस समय श्री वृषभ जिनका जन्म हुआ था उस समय भोगभूमिका अन्त और कर्मभूमिका प्रारम्भ था। कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेसे उस समय प्रजाको आजीविकाका कोई साधन दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था । प्रजापति होनेके कारण श्री वृषभ जिनका कर्तव्य था कि वे प्रजाजनोंको ऐसे कार्यों की शिक्षा दें जिससे उनकी आजीविका ठीक तरहसे चल सके । वे जन्मसे ही मति, श्रुत और अवधि ज्ञानसे सम्पन्न थे । यही कारण है कि उन्होंने देश, काल और तत्कालीन परिस्थितिको अच्छी तरहसे जानकर जीवित रहने की इच्छुक प्रजाको कृषि आदि छह प्रकारके कार्यों में प्रशिक्षित किया था। वे छह प्रकारके कार्य हैं-कृषि-खेती करना, असि-शस्त्र चलाना, मसिलेखन कार्य करना, विद्या-गायन, वादन आदि विद्याओंका सीखना, वाणिज्यव्यापार करना और शिल्प-चित्रकला, वास्तुकला आदि विभिन्न कलाओंका ज्ञान प्राप्त करना । अतः यह कहा जा सकता है कि भगवान् ऋषभनाथ समस्त प्रजाके प्रथम कुशल शिक्षक थे । उनका प्रजापति विशेषण सार्थक है । हिन्दू धर्ममें प्रजापति ब्रह्माको कहते हैं । ब्रह्माको सृष्टिका कर्ता माना गया है। ऋषभदेवने कर्मभूमिके प्रारम्भमें ब्रह्मा की तरह ही कर्मभ मिरूप सृष्टि की तत्कालीन रचना ( व्यवस्था ) की थी। इसी कारण वे प्रजाके वास्तविक पति (स्वामी) कहलाये । लोकमें श्री ऋषभनाथका उदय आश्चर्यकारी था। वे गर्भकल्याणक तथा जन्मकल्याणकके समयसे ही इन्द्रादि द्वारा रचित विशिष्ट विभूतिसे सम्पन्न थे । फिर भी वे हेय (संसार और संसारका कारण) और उपादेय (मोक्ष और मोक्षका कारण) तत्त्वोंको अच्छी तरहसे जानते थे। यही कारण है कि वे सब प्रकार की आसक्तिसे विरक्त हो गये थे। वे प्रजा और कुटुम्बसे ही नहीं, किन्तु स्वशरीर और भोगोंसे भी विरक्त हो गये थे। दो पत्नियों, दो पुत्रियों और एक सौ एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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