________________
स्वयम्भूस्तोत्र (१)श्री वृषभ जिन स्तवन स्वयम्भुवा भूतहितेन भूतले
समजसज्ञानविभूतिचक्षुषा । विराजितं येन विधुन्वता तमः
क्षपाकरेणेव गुणोत्करैः करैः ॥ १॥ सामान्यार्थ-स्वयम्भू , प्राणियोंके हितकारक, सम्यग्ज्ञानकी विभूति (सर्वपदार्थसाक्षात्कारित्व) रूप नेत्रके धारक, गुणोंके समूहसे युक्त वचनोंके द्वारा अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाले ऐसे श्री वृषभ जिन अनेक गुणोंसे युक्त किरणोंके द्वारा अन्धकारको नष्ट करनेवाले चन्द्रमाके समान इस भूतल पर सुशोभित हुए थे।
विशेषार्थ-प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभ जिन इस भरत क्षेत्रमें अवसर्पिणी कालके तृतीयकालके अन्तमें अवतरित हुए थे। वे स्वयम्भू थे' । अर्थात् अन्यः किसीके उपदेशके बिना ही वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप मोक्ष मार्ग को जानकर तथा उसका अनुष्ठान ( आचरण ) करके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य स्वरूप अनन्तचतुष्टयरूप आत्म विकास को प्राप्त हुए थे। उन्होंने संसारके समस्त जोवोंके कल्याण को दृष्टिसे हो निस्पृह होते हुए भी सब जीवों को मोक्षमार्गका उपदेश दिया था। वे समस्त पदार्थों को जानने वाले सम्यग्ज्ञान की विभूतिस्वरूप केवलज्ञानरूप अद्वितीय नेत्रके धारक थे। अर्थात सर्वज्ञ थे । इस कारण उन्होंने संसारके समस्त पदार्थोंका साक्षात्कार कर लिया था। अतः अबाधितत्व और यथावस्थित अर्थप्रकाशकत्व आदि गुणोंके समूहसे युक्त वचनोंके द्वारा उन्होंने संसारी प्राणियोंके अज्ञानरूप अन्धकार को उसी प्रकार नष्ट कर दिया था जिस प्रकार अर्थप्रकाशकत्व, आलादकत्व आदि गुणोंसे युक्त किरणोंके द्वारा चन्द्रमा रात्रिके अन्धकार को नष्ट कर देता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार रात्रिमें चन्द्रमा आकाशमें शोभायमान होता है उसी प्रकार श्री वृषभ जिन इस भूतल पर सुशोभित हुए थे।
१. स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमवबुध्य अनुष्ठाय वा अनन्तचतुष्टयतया भवतीति स्वयम्भूः ।
-प्रभाचन्द्राचार्यः
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org