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________________ प्रस्तावना के वचनोंसे उस स्याद्वादरूप पुण्योदधि तीर्थका प्रभाव कलिकालमें भी भव्य जीवोंके आन्तरिक मलको दूर करनेके लिए सर्वत्र व्याप्त हुआ है और वह सर्व पदार्थों तथा तत्त्वोंको अपना विषय किये हुए है। उन्होंने समन्तभद्रको भव्यैकलोकनयन अर्थात भव्य जीवोंके हृदयोंमें स्थित अज्ञानान्धकारको दूर करके अन्तःप्रकाश करने तथा सन्मार्ग दिखलानेवाला अद्वितीय सूर्य और स्याद्वाद मार्गका पालक भी बतलाया है। शिवकोटि आचार्यने समन्तभद्रको भगवान् महावीरके शासनरूप समुद्रको बढ़ानेवाला चन्द्रमा लिखा है । वीरनन्दी आचार्यने चन्द्रप्रभचरितमें लिखा है कि मोतियोंकी मालाकी तरह समन्तभद्र आदि आचार्योंकी भारती दुर्लभ है। समन्तभद्रका जन्मस्थान, कुल आदि : उपरिलिखित उल्लेखोंसे आचार्य समन्तभद्रके व्यक्तित्वका ज्ञान पूर्णरूपसे हो जाता है । फिर भी यह जिज्ञासा बनी ही रहती है कि इतने प्रभावशाली मूर्धन्य आचार्यका जन्म कहाँ हुआ था, उनके माता-पिता कौन थे, उनका कुल, जाति आदि क्या थी । इन प्रश्नोंका उत्तर सरल नहीं है। इसका कारण यह है कि अपनी ख्यातिकी चाहसे निरपेक्ष प्राचीन आचार्योंने अपने किसी भी ग्रन्थमें अपना कुछ भी परिचय नहीं लिखा है। फिर भी उपलब्ध अन्य किंचित् सामग्रीके आधार पर समन्तभद्रके विषयमें जो थोड़ी-सी जानकारी मिली है वह इस प्रकार है। श्रवणबेलगोलके विद्वान् श्री दोर्बलि जिनदास शास्त्रीके शास्त्रभण्डारमें सुरक्षित आप्तमीमांसाकी एक ताडपत्रीय प्रतिके निम्नलिखित पुष्पिका वाक्य___"इति श्रीफणिमण्डलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामी समन्तभद्रमुनेः कृतौ आप्तमीमांसायाम् ।" से ज्ञात होता है कि समन्तभद्र फणिमण्डलान्तर्गत उरगपुरके राजाके पुत्र थे। उरगपुर चोल राजाओंकी प्राचीन ऐतिहासिक राजधानी रही है । पुरानी त्रिचनापल्ली भी इसीको कहते हैं । कन्नड़ भाषाकी ‘राजावली कथे' के अनुसार समन्तभद्रका जन्म उत्पलिका ग्राममें हुआ था। संभव है कि उत्पलिका उरगपुरके अन्तर्गत ही कोई स्थान हो। उनके पिता १. श्रीवर्धमानमकलंकमनिन्द्यवन्द्य पादारविन्दयुगलं प्रणिपत्य मूर्ना । भव्यकलोकनयनं परिपालयन्तं स्याद्वादवम परिणौमि समन्तभद्रम् ।। अष्टशती २. जिनराजोद्यच्छासनाम्बुधिचन्द्रमाः।-रत्नमाला ३. गुणान्विता निर्मलवृतमौक्तिका नरोत्तमैः कण्ठविभूषणीकृता । न हारयष्टिः परमेव दुर्लभा समन्तभद्रादिभवा च भारती ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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