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________________ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका आचार्य समन्तभद्रके देशाटनके सम्बन्धमें एम० एस० रामस्वामी आयंगर अपनी Studies in South Indian Jainism नामक पुस्तक में लिखते हैं 'यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र एक बहुत बड़े धर्म प्रचारक थे, जिन्होंने जैन सिद्धान्तों और जैन आचारों को दूर-दूर तक विस्तारके साथ फैलानेका उपयोग किया है । और जहाँ कहीं भी वे गये उन्हें दूसरे सम्प्रदायों की ओरसे किसी भी विरोधका सामना नहीं करना पड़ा।" ___ आचार्य समन्तभद्र वाराणसी भी आये थे। एक शिलालेखमें उनका स्तवन इस प्रकार किया गया है समन्तभद्रः संस्तुत्यः कस्य न स्यान्मनीश्वरः । वाराणसीश्वरस्याग्रे निर्जिता येन विद्विषः ।। अर्थात् वे समन्तभद्र मुनीश्वर किसके द्वारा संस्तुत्य नहीं हैं जिन्होंने वाराणसी के राजाके समक्ष शत्रुओं ( जिनशासनसे द्वेष रखने वाले प्रतिवादियों ) को पराजित किया था। काशी नरेशके समक्ष अपना परिचय देते हुए उन्होंने कहा थाआचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहम् दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् । राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलाया माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम् ॥ हे राजन् ! मैं आचार्य हूँ, कवि हूँ, वादियों में श्रेष्ठ हूँ, पण्डित हूँ, ज्योतिषी हूँ, वैद्य हूँ, मान्त्रिक हूँ, तान्त्रिक हूँ, अधिक क्या, इस सम्पूर्ण पृथिवीमें मैं आज्ञासिद्ध और सिद्धसारस्वत हूँ । ___ आचार्य समन्तभद्रके उक्त दश विशेषणोंमेंसे अन्तिम दो विशेषण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । आज्ञासिद्धका अर्थ है कि जो आज्ञा दें अर्थात् कहें वही हो जाय । सिद्धसारस्वतका अर्थ है कि उन्हें सरस्वती देवी सिद्ध थी। आचार्य समन्तभद्रकी सफलता अथवा विजयका रहस्य इसीमें छिपा हुआ है । उनके वचन स्याद्वाद रूपी तुलामें तुले हुए होते थे। दूसरोंको कुमार्ग पर चलते हुए देखकर उन्हें बड़ा ही कष्ट होता था । अतः आत्महित साधनके साथ ही दूसरोंका हित साधन करना ही उनका प्रधान लक्ष्य था। अकलंकदेवने अष्टशतीके प्रारम्भमें यह स्पष्ट घोषित किया है कि समन्तभद्र१. तीर्थ सर्वपदार्थतत्त्वविषयस्याद्वादपुण्योदधेः भव्यानामकलंकभावकृतये प्राभावि काले कलौ । येनाचार्यसमन्तभद्रयतिना तस्मै नमः सन्ततं कृत्वा विवियते स्तवो भगवतां देवागमस्तत्कृतिः ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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