SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री नमि जिन स्तवन १५७ भी अहिंसाका विधान है, किन्तु जैनधर्ममें अहिंसाका सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है । प्राणियोंकी हिंसा न करना यह अहिंसाका सामान्य लक्षण है । हिंसा दो प्रकार की होती है-द्रव्यहिंसा और भावहिंसा। किसी जीवका घात हो जाना यह द्रव्य हिंसा है और आत्मामें राग-द्वेषादि विकारी भावोंकी उत्पत्ति होना भावहिंसा है । जो व्यक्ति अयत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है उसके द्वारा किसी जीवका घात न होनेपर भी उसे हिंसाका दोष लगता है और यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेवालेके द्वारा कदाचित् जीवका घात हो जानेपर भी हिंसा जन्य दोष नहीं लगता है। अतः हिंसाके प्रकरणमें भाव हिंसाकी प्रधानता है, द्रव्य हिंसा की नहीं। आत्मामें रागादि दोषोंकी उत्पत्ति नहीं होना अहिंसा है और उनकी उत्पत्ति होना हिंसा है । तात्पर्य यह है कि परिणामोंका रागादि दोषोंसे रहित होना आवश्यक है । जब परिणाम पवित्र होंगे तो द्रव्य हिंसाका त्याग स्वतः ही हो जायेगा। इस प्रकार अहिंसामें द्रव्य हिंसाके त्यागके साथ हो भाव हिंसाका त्याग होना भी आवश्यक है । ऐसा होनेपर ही अहिंसाको पूर्णता होती है। ऐसी अहिंसाको जगतमें परम ब्रह्म कहा गया है । परम ब्रह्मका अर्थ हैउत्कृष्ट आत्मस्वरूप । अहिंसा और परम ब्रह्म ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। अतः पूर्ण अहिंसाको प्राप्ति हो परम ब्रह्मकी प्राप्ति है । उस परम ब्रह्म स्वरूप अहिंसाकी प्राप्तिके लिए आरंभका त्याग अत्यावश्यक है । जिस आश्रम विधिमें थोडासा भी आरंभ होता है वहाँ अहिंसा कभी भी नहीं हो सकती है । हिन्दूधर्ममें ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और सन्यासाश्रमके भेदसे चार प्रकारके आश्रम बतलाये गये हैं । इनमेंसे पहलेके दो आश्रमोंमें हिंसाका होना स्वाभाविक है। किन्तु वानप्रस्थ आश्रममें और सन्यास आश्रममें भी तरह-तरहका आरंभ देखा जाता है । इन आश्रमोंमें रहनेवाले लोगोंमें जलावगाहन, जटाधारण, कन्दमूलादि भक्षण, पञ्चाग्नितप आदि क्रियायें देखी जाती हैं। वे लोग नाना प्रकारके विकृत वेष भी धारण करते हैं। सिर पर मयूरपिच्छ धारण करना, शरीरमें भस्म लपेटना, पीताम्बर या रक्ताम्बर धारण करना, मृगचर्म रखना, दण्ड, त्रिशूल आदि रखना। ये सब विकृत वेषके रूप हैं । इन सब कार्यों में आरंभके १. मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥ -प्रवचनसार गाथा २१७ २. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ -पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्लोक ४४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy