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________________ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदोपिका घटादि प्रत्येक वस्तु स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षासे अस्तिरूप है और पररूपादिचतुष्टयकी अपेक्षासे नास्तिरूप है। जब कोई वक्ता किसी एक समयमें वस्तुके अस्तित्व धर्मका प्रतिपादन करता है तब स्यादस्ति भंग बनता है और "किसी दूसरे समयमें नास्तित्व धर्मका प्रतिपादन करनेपर स्यान्नास्ति भंग बनता है । जब वक्ता अस्तित्व धर्मके कथनके बाद ही नास्तित्व धर्मका कथन करता है तब वस्तु उभयरूप ( अस्ति और नास्तिरूप ) हो जाती है। किन्तु यदि कोई वक्ता इन दोनों धर्मोंका कथन एक समयमें एक साथ करना चाहे तो नहीं कर सकता है । क्योंकि शब्दोंके द्वारा एक समयमें एक ही धर्मका कथन हो सकता है। ऐसी स्थितिमें वही वस्तु स्यादवक्तव्य हो जाती है। वस्तुमें पहले स्वरूपादि चतुष्टयको अपेक्षा होनेसे और इसके बाद ही स्वरूपादिचतुष्टय और पररूपादि चतुष्टयकी युगपत् अपेक्षा होनेसे वस्तु स्यादस्ति अवक्तव्य हो जाती है। पहले पररूपादिचतुष्टय की अपेक्षा होनेसे और इसके बाद ही स्वरूपादिचतुष्टय और पररूपादिचतुष्टयकी युगपत् अपेक्षा होनेसे वस्तु स्यान्नास्ति अवक्तव्य हो जाती है। पहले क्रमशः स्वरूपादिचतुष्टय और पररूपादिचतुष्टयकी पृथक्-पृथक् अपेक्षा होनेसे तथा इसके बाद ही दोनोंकी युगपत् अपेक्षा होनेसे वस्तु स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य हो जाती है । इस प्रकार नास्तित्व धर्म सापेक्ष अस्तित्व धर्मकी अपेक्षासे सप्तभंगी बनती है। इसी प्रकार एकत्व-अनेकत्व, नित्यत्व-अनियत्व आदि धर्मोकी अपेक्षासे भी सप्तभंगी बना लेना चाहिए। इस प्रकार श्री नमि जिनने • परस्पर सापेक्ष अनन्त धर्मात्मक वस्तुतत्त्वके प्रत्येक धर्मको स्याद्वादन्यायके द्वारा • सप्तभंगरूप कहा है। अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं । न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ ॥ ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं । भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ॥ ४॥ सामान्यार्थ-हे नमि जिन ! प्राणियोंकी अहिंसा जगत्में परम ब्रह्मरूपसे प्रसिद्ध है । वह अहिंसा उस आश्रम-विधिमें नहीं है जिस आश्रम विधिमें अणुमात्र भी आरम्भ होता है। इसलिए उस परम ब्रह्मरूप अहिंसाकी सिद्धिके लिए परम दयाल आपने ही बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहको छोड़ा है । किन्तु जो विकृत वेष और उपधि (परिग्रह ) में आसक्त हैं उन्होंने दोनों प्रकारके • परिग्रहको नहीं छोड़ा है। विशेषार्थ-यहाँ अहिंसाका महत्त्व बतलाया गया है । यद्यपि अन्य धर्मों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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