SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री अर जिन स्तवन १३१ अन्तरायका भी ग्रहण करना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि श्री अर जिन रत्नत्रयके द्वारा चार घातिया कर्मोंका क्षय करके अर्हन्त हो गये थे। उपलब्ध प्रतियोंमें इस श्लोकको द्वितीय पंक्तिमें 'दृष्टिसंपदुपेक्षा' ऐसा पाठ है । किन्तु यहाँ 'संपद' के स्थानमें 'संविद्' शब्द ठीक प्रतीत होता है । संविद्का अर्थ सम्यग्ज्ञान होता है तथा संपद्का सामान्य अर्थ सम्पत्ति होता है । कोई व्यक्ति संपद्का विशेष अर्थ सम्यग्ज्ञान भी कर सकता है। फिर भी शब्द प्रयोग ऐसा होना चाहिए जिससे सरलतापूर्वक शब्द बोध हो सके। श्री वीर जिन स्तवनके अन्तिम पद्यमें सम्पत्तिके अर्थमें संपद शब्दका प्रयोग देखिए । अतः संपद्के स्थानमें संविद् शब्दका प्रयोग उचित प्रतीत होता है । श्री मुख्तार सा० ने संविद् शब्दका ही प्रयोग किया है। कन्दर्पस्योद्धरो दर्पस्त्रैलोक्यविजयाजितः । हृपयामास तं धीरे त्वयि प्रतिहतोदयः ॥ ६॥ सामान्यार्थ-हे अर जिन ! तीन लोकोंकी विजयसे उत्पन्न कामदेवके उत्कट दर्प (अहंकार) ने कामदेवको लज्जित कर दिया था। क्योंकि धीर-वीर आपके समक्ष कामदेवका उदय (प्रभाव) नष्ट हो गया था। विशेषार्थ-तीन लोकोंमें कामदेवका बड़ा भारी प्रभाव है। कोई भी प्राणी ऐमा नहीं है जो कामदेवके प्रभावसे बचा हो । कामदेव इतना शक्तिशाली है कि उसने तीनों लोकोंके प्राणियों पर विजय प्राप्त कर ली है। इस विजयसे कामदेवको बड़ा भारी अहंकार उत्पन्न हो गया है कि संसारके समस्त प्राणी मेरे अधीन हैं। - श्री अर जिन परम धीर वीर हैं। अतः कामदेव उनके चित्तमें कोई विकार उत्पन्न नहीं कर सका । प्रत्युत श्री अर जिनके समक्ष त्रैलोक्य-विजयसे अजित कामदेव का उत्कट दर्प चूर-चूर हो गया। इस प्रकार कामदेवको लज्जित होना पड़ा और एक प्रकारसे उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया। इसका तात्पर्य यही है कि श्री अर जिन पूर्ण कामविजयी थे । आयत्यां च तदात्वे च दुःखयोनिर्दुरुत्तरा। तष्णानदी त्वयोत्तीर्णा विद्यानावा विविक्तया ॥ ७ ॥ सामान्यार्थ—पर लोक तथा इस लोकमें जो दुःखोंकी योनि है और जिसका पार करना अत्यन्त कठिन है ऐसी तृष्णारूप नदीको आपने निर्दोष ज्ञानरूप नौकासे पार कर लिया है। विशेषार्थ-तृष्णा एक नदीके समान है। पानीसे भरी हुई नदीको पार कना बहुत कठिन है। इसी प्रकार तृष्णा-नदीको भी पार करना अत्यन्त कठिन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy