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________________ १३० स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका अर जिनके अद्भुत सौन्दर्यको देखकर इन्द्रको सन्तोष ही नहीं हो रहा था । तब उसने विक्रिया द्वारा अपने हजार नेत्र बना लिए । किन्तु वह हजार नेत्रों द्वारा श्री अर जिनके रूप-सौन्दर्यका अवलोकन करता हुआ भी अतृप्त ही रहा । यहाँ शक्र शब्दसे सौधर्म इन्द्रका ग्रहण करना चाहिए। जन्मकल्याणकके समय सौधर्म इन्द्र अन्य इन्द्र तथा देवोंके साथ भगवान्के जन्मकल्याणकका उत्सव मनानेके लिए यहाँ आता है। उस समय सौधर्म इन्द्रकी इन्द्राणी प्रसूति गृहमें जाती है और वहाँसे बालकरूप भगवान्को उठाकर तथा बाहर लाकर सौधर्म इन्द्रको सौंप देती है, जिससे वह भगवान्को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर एक हजार आठ कलशोंसे उनका अभिषेक कर सके। उस समय प्रथम बार भगवान के रूपसौन्दर्यको देखकर सौधर्म इन्द्र तृप्त नहीं होता है। तब वह विक्रियाके द्वारा अपने हजार नेत्र बनाकर भगवान्का अवलोकन करता है, फिर भी वह अतृप्त ही रहता है । ऐसा था श्री अर जिनका रूप-सौन्दर्य । मोहरूपो रिपुः पापः कषायभटसाधनः । दृष्टिसंविदुपेक्षाऽस्त्रैस्त्वया धोर पराजितः ॥५॥ सामान्यार्थ-हे धीर ! कषायरूप योद्धाओंकी सेनासे युक्त जो मोहरूप पापी शत्रु है उसे आपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप अस्त्रोंसे पराजित कर दिया है। विशेषार्थ-ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोमें मोहनीय कर्म सबसे प्रबल है । यह जीवका पापरूप शत्रु है । कर्मोको प्रकृतियाँ दो प्रकारकी होती हैंपण्य प्रकृति और पाप प्रकृति । पुण्य प्रकृति प्रशस्त होती है और पाप प्रकृति अप्रशस्त होती है । तीर्थंकर नाम कर्मके उदयसे होनेवाली तीर्थंकर प्रकृति प्रशस्त है । किन्तु मोहनीय कर्मको समस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ पापरूप हैं । मोहनीय कर्मके उदयसे यह जीव आत्म स्वरूपको भूलकर शरीरको ही आत्मा समझने लगता है । इसलिए यह मोह आत्माका अहित करनेके कारण सबसे बड़ा शत्रु है। इसे जीतना सरल नहीं है। क्योंकि इसके पास कषायरूप योद्धाओंकी प्रबल सेना है । क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे कषायके चार भेद हैं। ये ही चार कषायें अनन्तानुबन्धी आदिके भेदसे सोलह प्रकार की हो जाती हैं । इनके अतिरिक्त हास्य, रति अरति आदि नौ नोकषाय भी हैं। इस प्रकार कुल पच्चीस कषायें मोहनीय कर्मकी अजेय सेना है। श्री अर जिनने ऐसे प्रबल शत्रु को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके द्वारा जीत लिया है । यहाँ मोह शब्द उपलक्षण है । अतः मोह शब्दके द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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