SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १७ ) श्री कुन्थु जिन स्तवन कुन्थुप्रभृत्यखिलसत्त्वदयैकतानः कुन्थुजिनो ज्वरजरामरणोपशान्त्यै । त्वं धर्मचक्रमिह वर्तयसि स्म भूत्यै भूत्वा पुरः क्षितिपतीश्वरचक्रपाणिः ॥१॥ सामान्यार्थ-हे कुन्थु जिन ! कुन्थु आदि समस्त प्राणियों पर दयाका अनन्त विस्तार करनेवाले आपने पहले राज्यलक्ष्मीके लिए राजाओंके स्वामी चक्रवर्ती राजा होकर बादमें ज्वरादि रोग, जरा और मरणको उपशान्तिरूप मोक्ष लक्ष्मीके लिए इस लोक में धर्मचक्रको प्रवर्तित किया था। विशेषार्थ-- सत्रहवें तीर्थंकरका नाम कुन्थुनाथ है । वे कुन्थु आदि समस्त प्राणियों पर पूर्ण दयाभाव रखते थे। कुन्थु एक सूक्ष्म प्राणी है । हिन्दीमें इसको तिरूला या चोंटो कहते हैं । यह तीन इन्द्रिय प्राणी है । यद्यपि यहाँ कुन्थु प्रभृति शब्दका प्रयोग किया गया है, किन्तु इसका तात्पर्य यही है कि श्री कुन्थु जिन एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त समस्त जीवों पर दयाका अनन्त विस्तार करते थे । श्री कुन्थु जिन चक्रवर्ती राजा थे। उन्होंने गृहस्थावस्थामें राज्यलक्ष्मीकी प्राप्तिके लिए सुदर्शन चक्रको प्रवर्तित किया था और ऐसा करके वे अनेक राजाओंके स्वामी बनकर चक्रवर्ती सम्राट् हुए थे। इसके पश्चात् उन्होंने वीतराग अवस्था मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्तिके लिए धर्मचक्रका प्रवर्तन किया था। धर्मचक्र उत्तमक्षमादिरूप अथवा सम्यग्दर्शनादिरूप होता है । अर्हन्त अवस्थाको प्राप्त करके श्री कुन्थु जिनने भव्य जीवोंके लिए जो उपदेश दिया था उसका आचरण करनेसे ज्वरादि समस्त रोगोंका, जराका और मरणका नाश हो जाता है और ऐसी स्थितिमें मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्ति अवश्यंभावी है । इस प्रकार श्री कुन्थु जिनने धर्मका आचरण करके स्वयं मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त किया तथा अन्य भव्य जीवोंको भो मोक्षलक्ष्मोको प्राप्त करनेका उपाय बतला दिया। तृष्णाचिषः परिदहन्ति न शान्तिरासा मिष्टेन्द्रियार्थविभवः परिवृद्धिरेव । स्थित्यैव कायपरितापहरं निमित्त मित्यात्मवान् विषयसौख्यपराङ्मुखोऽभूत् ॥ २॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy