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________________ श्री शान्ति जिन स्तवन १२३ मृत्युके राजा यमराजका चक्र । अतः हम कह सकते हैं कि उस समय नष्ट होता हुआ कर्मचक्र तथा यमराजका चक्र उनके अधीन हो गया था। अर्थात् मुक्तिको प्राप्त करके श्री शान्ति जिनने मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली थी। श्री शान्ति जिनकी ऐसी अद्भुत महिमा है । स्वदोषशान्त्या विहितात्मशान्तिः शान्तेविधाता शरणं गतानाम् । भूयाद् भवक्लेशभयोपशान्त्यै शान्तिजिनो मे भगवान् शरण्यः ॥ ५॥ (८०) सामान्यार्थ-जिन शान्तिनाथ भगवान्ने अपने दोषोंको शान्ति करके आत्मशान्तिको प्राप्त किया है और जो शरणागतोंके लिए शान्तिके विधाता हैं, वे भगवान् शान्ति जिन मेरे शरणभूत हैं । ऐसे श्री शान्ति जिन मेरे भवभ्रमणकी, क्लेशोंकी और भयोंकी उपशान्तिके लिए निमित्त होवें । विशेषार्थ-श्री शान्ति जिनने पहले अपने राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि विकारोंका नाश करके अनन्त सुखादिरूप आत्मशान्तिकी प्राप्ति की थी । ऐसा होने पर ही वे संसार समुद्रसे पार होनेके इच्छुक शरणमें आए हुए भव्य जीवोंके लिए शान्ति प्रदाता हुए थे। क्योंकि जबतक यह मानव अपने दोषोंका क्षय करके स्वयं शान्ति प्राप्त नहीं कर लेता तबतक वह दूसरोंके लिए शान्ति प्रदाता नहीं हो सकता है। कर्म शत्रुओंको जीतनेके कारण शान्तिनाथ जिन कहलाते हैं । विशिष्ट ज्ञानवान् अथवा इन्द्रादि द्वारा पूज्य होनेसे वे भगवान् हैं तथा शरणागतोंकी रक्षा करने में निपुण हैं। ऐसे श्री शान्ति जिन मेरे भवपरिम्रमणकी, भवभ्रमणसे उत्पन्न होनेवाले क्लेशोंकी और नाना प्रकारके भयोंकी उपशान्ति करें। यहाँ स्तुतिकार श्री शान्ति जिनसे यही कामना कर रहे हैं कि आपकी स्तुतिके फलस्वरूप मैं संसारके जन्ममरणादि सम्बन्धो कष्टोंसे मुक्त होकर आपकी तरह ही आत्मशान्तिको प्राप्त करूं। यहाँ यह दृष्टव्य है कि शान्तिनाथ भगवान् किसी इच्छा या प्रयत्नके बिना ही शरणागतोंके लिए शान्तिके विधाता होते हैं । जिसप्रकार अग्निके पास जानेसे उष्णताका और हिमालयके पास जाने से शीतका अनुभव स्वयं होता है, उसी प्रकार श्री शान्ति जिनकी शरणमें जानेवाले भव्य जीवोंको स्वयं ही शान्ति प्राप्त होती हैं । वे ती शान्ति प्राप्त होनेके निमित्त मात्र हैं । जो भी भव्य जीव श्रद्धा-- पूर्वक उनकी शरण में जाता है उसे शान्तिको प्राप्ति अवश्य होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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