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________________ ( १६ ) श्री शान्ति जिन स्तवन विधाय रक्षां परतः प्रजानां राजा चिरं योऽप्रतिमप्रतापः। . व्यधात् पुरस्तात् स्वत एव शान्ति #निर्दयामूतिरिवाघशान्तिम् ॥ १॥ सामान्यार्थ-जो शान्ति जिन शत्रुओंसे प्रजाजनोंकी रक्षा करके चिरकाल तक अनुपम पराक्रमी राजा हुए और फिर जिन्होंने स्वयं ही मुनि होकर दयामूर्तिकी तरह पापोंकी शान्ति की। विशेषार्थ-सोलहवें तीर्थंकरका नाम शान्तिनाथ है। यहाँ शान्तिनाथ भगवान्की राज्य अवस्था और मुनि अवस्थाका वर्णन किया गया है । श्री शान्ति जिन अनुपम पराक्रमके धारक चक्रवर्ती राजा थे । राज्य अवस्थामें उन्होंने चिरकाल तक शत्रुओंसे अपने प्रजाजनोंकी रक्षा की थी। वे साधारण राजा नहीं थे किन्तु परम प्रतापी राजा थे । वे आवश्यकतानुसार शत्रुओंसे घोर युद्ध करनेमें भी समर्थ थे । अतः उनकी प्रजा पूर्ण सुरक्षित थी। चिरकाल तक राज्य करनेके बाद श्री शान्ति जिन किसीके उपदेशके बिना स्वयं ही संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होकर मुनि हो गये थे। उस समय वे अपनी दयालुवृत्तिके कारण ऐसे मालूम पड़ते थे मानों दयाकी मूर्ति ही हों। जब वे मुनि हो गये तब उनके हिंसा आदि पाँच पाप स्वतः ही छूट गये थे। उनकी दयामूर्तिको देखकर अन्य जीवोंके भी हिंसादि पाप दूर हो गये थे । अतः यह कहा जा सकता है कि मुनि अवस्थामें उन्होंने अपने तथा प्रजाजोंके पापोंका उपशमन किया था। इस प्रकार श्री शान्ति जिनने राज्यावस्थामें शत्रुओं पर विजय प्राप्त की तथा मुनि अवस्थामें पापों पर विजय प्राप्त की थी। चक्रेण यः शत्रुभयङ्करेण जित्वा नृपः सर्वनरेन्द्रचक्रम् । समाधिचक्रण पुजिगाय महोदयो दुर्जयमोहचक्रम् ॥ २॥ सामान्यार्थ-जो शान्ति जिन शत्रुओंके लिए भय उत्पन्न करनेवाले सुदर्शनचक्रसे सम्पूर्ण राजाओंके समूहको जीत कर चक्रवर्ती राजा हुए और बादमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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