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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदोपिका कुछ करनेकी इच्छासे नहीं होती हैं, किन्तु बिना इच्छाके ही होती हैं। क्योंकि इच्छाको उत्पन्न करनेवाला मोहनीय कर्म पहले ही नष्ट हो चुका है।
यहां कोई शंका कर सकता है कि यदि तीर्थकरकी प्रवृत्तियाँ बिना इच्छाके होती हैं तो उनमें असमीक्ष्यकारित्वका दोष आता है और अविचारित होनेसे उनकी प्रवृत्तियोंको प्रशस्त नहीं कहा जा सकता है । इस शंकाका उत्तर यह है कि श्री धर्म जिनकी प्रवृत्तियाँ अविचारित नहीं हैं, किन्तु सुविचारित ही हैं । उनकी सब प्रवृत्तियाँ वस्तु स्वरूपका पूर्णरूपसे विचार करके ही होती हैं । मुख्य बात यह है कि श्री धर्म जिनका चरित्र ही अचिन्त्य है। उपर्युक्त कथनका निष्कर्ष यह है कि तीर्थंकरकी सब प्रवृत्तियाँ तीर्थंकर नाम कर्मके उदयसे तथा भव्य जीवोंके नियोगसे स्वतः ही होती हैं । अतः उनकी प्रवृत्तियोंमें असमोक्ष्यकारित्वका दोष संभव नहीं है। मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान्
देवतास्वपि च देवता यतः । तेन नाथ परमासि देवता
श्रेयसे जिनवृष प्रसीद नः ॥ ५ ॥ (७५) सामान्यार्थ-हे नाथ ! आप मानुष स्वभावको अतिक्रान्त कर गये हैं और देवताओंमें भी देवता हैं। इसलिए आप परम देवता हैं। अतः हे धर्म जिन ! आप हमारे कल्याणके लिए प्रसन्न हों।
विशेषार्थ-श्री धर्म जिन मनुष्य गतिमें उत्पन्न होनेके कारण मनुष्य थे । किन्तु वे साधारण मनुष्य नहीं थे, असाधारण मनुष्य थे । उनका शरीर पसीनासे रहित था, मल-मूत्रसे रहित था और दूधके समान सफेद रुधिरसे युक्त था । इस प्रकार वे मानव स्वभावको अतिक्रान्त कर गए थे । इतना ही नहीं, वे हरि, हर आदि अथवा इन्द्र, चन्द्र आदि देवताओंमें भी देवता (पूज्य) थे । देवताओंके भी देवता होनेके कारण वे परम देवता (पूज्यतम देवता) थे। ऐसे हे धर्म जिन ! आप हमारे कल्याणके लिए प्रसन्न होवें।
यहाँ विचारणीय यह है कि स्तुतिकार आचार्य समन्तभद्र यह अच्छी तरहसे जानते हैं कि भगवान् किसीकी स्तुतिसे प्रसन्न नहीं होते हैं । फिर उन्होंने यह कैसे कहा कि आप हमारे ऊपर प्रसन्न होइये । यथार्थमें स्तुतिकारने यहाँ अलंकृत भाषामें अपनी भावना प्रकट की है। स्तुतिकारकी भावना यह है कि हम परम वीतराग श्री धर्म जिनकी प्रसन्न मनसे आराधना करें तथा ऐसा करते हुए उनके साथ तन्मयताको प्राप्त करें। और इसके फलस्वरूप मोक्षमार्ग पर चलकर अपना कल्याण करने में समर्थ होवें ।
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