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________________ श्री विमल जिन स्तवन १०५ उत्पन्न होता है। प्रथम अर्थमें कर्ता, कर्म, करण आदि कारक कहलाते हैं । द्वितीय अर्थमें उपादान और निमित्त कारण कारक होते हैं । घटादि कार्योंकी उत्पत्ति कर्ता, कर्म, करण आदि कारकोंके परस्परमें सहयोगसे होती है । घटकी उत्पत्तिमें कुंभकार कर्ता कारक है, घट कर्म कारक है और दण्ड करण कारक है। अन्य कारकोंकी सहायताके बिना अकेला कुंभकार घटको नहीं बना सकता है । घटको बनानेके लिए उसे अन्य कारकोंकी सहायता लेनी ही पड़ती है । तभी घटरूप कार्यकी सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार घटादि कार्यकी उत्पत्ति उपादान कारण और निमित्त कारणके पारस्परिक सहयोगसे होती है। अन्य कारणके सहयोगके बिना अकेला उपादान कारण या अकेला निमित्त कारण कार्यको उत्पत्ति नहीं कर सकता है। घटकी उत्पत्तिमें मृद्रव्य उपादान कारण है और कुंभकार, दण्ड, चक्र आदि निमित्त कारण हैं । यह पहले ही बतलाया जा चुका है कि दोनों कारणोंकी पूर्णता या अनुकूलता होनेपर हो कार्यकी उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं । जो बात कारकके विषयमें कही गई है वही बात सामान्य और विशेषको विषय करनेवाले द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंके विषयमें भी चरितार्थ होती है । कोई भी वस्तु द्रव्य-पर्यायरूप अथवा सामान्य-विशेषरूप होती है । द्रव्यार्थिक नय द्रव्य अथवा सामान्यको विषय करता है और पर्यायार्थिक नय पर्याय अथवा विशेषको विषय करता है। वक्ताका अभिप्राय जब सामान्यके प्रतिपादन करनेका होता है तब वस्तुका सामान्य धर्म मुख्य हो जाता है और विशेष धर्म गौण हो जाता है । उस समय वस्तुमें विशेषका भी अस्तित्व है किन्तु वक्ताको दृष्टिसे ओझल होनेके कारण वह गौण कहलाता है । इसी प्रकार जब वक्ताका अभिप्राय विशेषके प्रतिपादन करनेका होता है तब वस्तुका विशेष धर्म मुख्य हो जाता है और सामान्य धर्म गौण हो जाता है । उस समय वस्तुमें सामान्यका भी अस्तित्व है किन्तु वक्ताकी दृष्टिसे ओझल होनेके कारण वह गौण कहलाता है । द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ये दोनों नय जब परस्परमें सापेक्ष रहते हैं तभी सम्यक् नय कहलाते हैं। यदि द्रव्यार्थिक नय पर्यायाथिक नयकी अपेक्षा न करके स्वतन्त्ररूपसे द्रव्यको विषय करता है अथवा पर्यायका निराकरण करता है तो वह मिथ्या नय है । इसी प्रकार यदि पर्यायाथिक नय द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा न करके स्वतन्त्ररूपसे पर्यायको विषय करता है अथवा द्रव्यका निराकरण करता है तो वह मिथ्या नय है। अतः नयोंका परस्पर सापेक्ष होना आवश्यक है। श्री विमल जिनके मतमें नयोंके विषय (सामान्य और विशेष अथवा द्रव्य और पर्याय) में मुख्य और गौणकी व्यवस्था द्वारा नयोंमें सापेक्षता सिद्ध की गई है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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