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________________ १०४ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदोपिका यहाँ स्वपरप्रणाशी शब्दका अर्थ दो प्रकारसे किया जा सकता है(१) क्षणिक निरपेक्ष नित्य नय अपना नाश तो करता ही है, साथ ही क्षणिक नयका भी नाश करता है । (२) नित्य नयका आग्रह रखनेवाले व्यक्तिकी आत्मा स्व है और वह जिन दूसरे जनोंको नित्य नयकी ग्राह्यताका बोध कराता है वे पर हैं । यहाँ नित्य नयका आग्रही व्यक्ति स्वका नाश तो करता ही है, साथ ही वह पर (अन्य जनों) का नाश भी करता है। अर्थात् स्व और पर दोनों वस्तुतत्त्वके विषयमें अज्ञानी होनेके कारण स्व-पर कल्याण नहीं कर सकते हैं। वे तो संसार सागरमें चक्कर लगाते रहते हैं। जो बात नित्य नयके विषयमें कही गई है वही बात क्षणिक नयके विषयमें भी समझ लेनी चाहिए। हे विमल जिन ! आप कर्म कलंकसे रहित होनेके कारण विमल हैं और प्रत्यक्षज्ञानी मुनि हैं। आपके मतमें नित्य, क्षणिक आदि नय परस्परमें सापेक्ष हैं । इसलिए वे तत्त्व (वास्तविक) हैं और स्व तथा परके उपकारी हैं । यहाँ स्वपरोपकारी शब्दका अर्थ भी दो प्रकारसे किया जा सकता है(१) क्षणिक सापेक्ष नित्य नय अपना भला तो करता ही है, साथ ही वह क्षणिक नयका भी भला करता है। इसी प्रकार नित्य सापेक्ष क्षणिक नय अपना भला तो करता ही है, साथ ही वह नित्य नयका भी भला करता है । (२) परस्पर सापेक्ष नित्य, क्षणिक आदि नयोंका ज्ञाता स्व है और वह जिन दूसरे जनोंको सापेक्ष नयोंका ज्ञान कराता है वे पर हैं। अतः सापेक्ष नय स्व और पर दोनोंका कल्याण करते हैं । अर्थात् वस्तु तत्त्वके विषयमें यथार्थ ज्ञान हो जानेके कारण वे दोनों ही कल्याणके मार्ग पर चलते हुए स्व-पर कल्याण करते हैं। इस प्रकार सापेक्ष नय स्वपरोपकारी होते हैं । यथैकशः कारकमर्थसिद्धये समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्यविशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः ॥ २ ॥ सामान्यार्थ-हे विमल जिन ! जिस प्रकार एक-एक कारक अपनी सहायता करनेवाले अन्य कारककी अपेक्षा करके ही अर्थकी सिद्धिके लिए समर्थ होता है, उसी प्रकार सामान्य और विशेषको विषय करनेवाले जो नय हैं वे आपके मतमें मुख्य और गौणकी कल्पनासे इष्ट हैं । विशेषार्थ-इस श्लोकमें प्रयुक्त कारक शब्दका अर्थ दो प्रकारसे हो सकता है-(१) कारक वह है जो कार्यको करता है अथवा (२) जिसके द्वारा कार्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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