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________________ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका स्यात् शब्दका प्रयोग कथंचित् अपेक्षाके अर्थमें होता है। आचार्य समन्तभद्रने आत्ममीमांसामें बतलाया है कि स्यात् शब्द अर्थके साथ सम्बद्ध होनेके कारण 'स्यादस्ति घटः' इत्यादि वाक्योंमें अनेकान्तका द्योतक होता है और गम्य अर्थका विशेषण होता है। अर्थात् स्यात् शब्द अनेकान्तका द्योतन करता हुआ गम्य अर्थका प्रतिपादन करता है। 'स्यादस्ति घटः' इस वाक्यमें घटका अस्तित्व गम्य है । अतः यहाँ स्यात् शब्द घटमें अस्तित्व धर्मका प्रतिपादन करता हुआ उसमें नास्तित्व आदि अन्य अनेक धर्मोका द्योतन करता है । यद्यपि परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले एकत्व और अनेकत्व दोनों धर्म एक ही वस्तुमें रहते हैं किन्तु जब वक्ता एकत्व धर्मका कथन करता है तब वह मुख्य हो जाता है और अनेकत्व धर्म गौण हो जाता है। इसी प्रकार अनेकत्व धर्मके कथनके समय वह मुख्य हो जाता है और एकत्व धर्म गौण रहता है । क्योंकि वक्ताका कथन स्याद्वाददृष्टिको लिए हुए होता है। इसके विपरीत जब कोई एकान्तवादी वक्ता गौण धर्मको अपेक्षा न रखकर मात्र मुख्य धर्मका ही कथन करता है तब आकांक्षी (स्याद्वादी)का स्यात् यह निपात शब्द निश्चयसे एकान्तवादीके कथनका प्रतिरोध करता है । तात्पर्य यह है कि गौण धर्मकी उपेक्षा करके या उसका निराकरण करके किया गया मुख्य धर्मका कथन प्रमाण विरुद्ध है । संस्कृत टीकाकारने 'आकांक्षिणः स्यादिति वै निपातो' इत्यादि वाक्य की व्याख्या अस्तित्व और नास्तित्व धर्मको लेकर की है । यद्यपि इस श्लोकमें अस्तित्व और नास्तित्व धर्मका कोई प्रकरण नहीं है, फिर भी उनकी व्याख्या युक्तिसंगत और स्याद्वादसिद्धान्तको सिद्ध करनेवाली है। गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्यं जिनस्य ते त्वद्विषतामपथ्यम् । ततोऽभिवन्द्यं जगदीश्वराणां ममापि साधोस्तव पादपद्मम् ॥ ५ ॥(४५) सामान्यार्थ-हे सुविधि जिन ! गौण और प्रधान अर्थको लिए हुए आपका स्यात् पदसे युक्त यह वाक्य आपसे द्वेष रखनेवाले एकान्तवादियोंके लिए अपथ्य (अनिष्ट) है । इसलिए हे साधो! आपके चरण कमल जगत् के स्वामी इन्द्र, चक्रवर्ती आदिके द्वारा वन्दनीय हैं और मेरे द्वारा भी वन्दनीय हैं। १. वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि ॥ १०३ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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