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आयु बढ़नेपर भी मेरा जैन साहित्यके प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ, कुछ वर्षों पूर्व प्रयागकी “विश्ववाणी' पत्रिकाने जैनधर्मपर एक विशेषांक निकाला था। सम्पादकने मुझे जैनधर्मका विशेष ज्ञान रखनेवाला समझ कर एक लेख भी माँगा था। महावीर जयन्तीके अवसरपर प्रायः प्रतिवर्ष मुझे किसी-न-किसी सभामें निमंत्रित किया जाता है। अभी हाल ही में सागर विश्वविद्यालयके हिन्दी-विभागके अध्यक्ष श्री नन्ददुलारे जी वाजपेयीने मेरे ग्रन्थ 'कृष्णायन' की आलोचना करते हुए रेडियोपर कहा था-"जीवनकी मुक्त दशाका वर्णन हिन्दू दार्शनिक जिस रूपमें करते हैं, जैन दार्शनिक उससे भिन्न रूपमें करते हैं। जैनों के निरूपणमें मुक्त जीव ही ईश्वर संज्ञा धारण करता है। वही पृथ्वी पर अवतार लेकर प्रकट होता है। हिन्दू दर्शनोंमें जीवको ईश्वरकी संज्ञा नहीं दी गई है। कृष्णायनके कविने मुक्त जीवनकी कल्पना जैन आधार पर ग्रहण की है, क्योंकि वह उसे अधिक व्यावहारिक प्रतीत होती है।" वाजपेयीजीका यह कथन ठीक हो, या न हो, लोगोंकी यह धारणा अवश्य है कि जैनदर्शनका मुझपर बड़ा प्रभाव है। मुझे ऐसी धारणाओंका खण्डन करनेकी आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती। आखिर जैनदर्शन भी मेरी उसी प्रकार पैतृक संपत्ति है जिस प्रकार अन्य भारतीय दर्शन । मैं उसकी उपेक्षा क्यों करूँ।।
परन्तु आज इन बारीक विवादों के लिए अवसर ही कहाँ रहा ? मैं जैन-दर्शनसे प्रभावित होऊँ, परन्तु जैन समाजके ही शिक्षित नवयुवक अपनी बहुमूल्य सम्पत्तिको छोड़ मार्क्स-वादको अपनाते जा रहे हैं। कोई जैन विद्वान गिनती करके तो देखे कि भारतके मार्क्सवादियोंमें जैन नवयुवकोंकी संख्या कितनी है। मार्क्स के भौतिकवादके चरणोंपर समस्त भारतीय दर्शन चढ़ाये जा रहे हैं। यह खतरा हम सबके सामने है। आवश्यकता इस बातकी है कि जैन और अजैन सभी दर्शनों के वेत्ता मार्क्सवादका अध्ययन कर उसकी निस्सारता प्रकट करें। जैन गुरुकुलोंमें मार्क्सवादका अध्ययन और खण्डन होना चाहिए। भारतवर्षमें दार्शनिक विचारोंकी धारा सूख गयी है। उसमें प्रवाह लानेके लिए हमें योरोपीय दर्शन विशेषकर मार्क्सवादका प्रगाढ़ अध्ययन करना होगा, तभी हमारे
१. जैन दर्शनके अनुसार मुक्त जीव लौटकर नहीं आता।
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