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प्रस्तावना
हिन्दी भाषामें आत्मकथाओं का अभाव है। अभी दो वर्ष पूर्व देशरत्न डा. राजेन्द्रप्रसाद की आत्म-कथा प्रकाशित हुई थी। इसी प्रकारकी एकाध और पुस्तकें हैं।' वर्णीजीने अपना आत्म-चरित लिखकर जहाँ जैन-समाजका उपकार किया है, वहाँ हिन्दी के भंडारको भी भरा है। एतदर्थ वे बधाई के पात्र हैं।
श्रीमान वर्णीजीसे मेरा परिचय किस प्रकार हुआ, इसका उल्लेख उन्होंने स्वयं इस ग्रन्थमें किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मेरा हृदय उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धालु है। राजनीतिक क्षेत्रमें कार्य करते रहनेके कारण मेरा सभी प्रकारके व्यक्तियोंसे सम्बन्ध आता है। साधुस्वभाव व्यक्तियों की ओर मैं सदा ही आकर्षित हो जाता हूँ। प्रातःस्मरणीय महात्मा गाँधीके लिए मेरे हृदयमें जो असीम श्रद्धा है उसका कारण उनका राजनीतिक महत्त्व तो कम और उनके चरित्रकी उच्चता ही अधिक रही है। उनके सामने जाते ही मुझे ऐसा अनुभव होता था कि मैं जिस व्यक्तिसे मिल रहा हूँ उसने अपने सभी मनोविकारोंपर विजय प्राप्त कर ली है। वर्णीजीके सम्पर्कमें मैं अधिक नहीं आया, परन्तु मिलते ही मेरा हृदय श्रद्धासे भर गया। उन्होंने जबलपुरके जैन समाजके लिए बहुत कुछ किया है, जिससे भी मैं भलीभाँति परिचित हूँ। इसलिए कुछ जैन-मित्रोंने जब मुझसे इस ग्रंथकी प्रस्तावना लिखनेका आग्रह किया तब समय का अभाव रहते हुए भी मैं 'नहीं' न कह सका।
बचपनमें जब मैं रायपुरमें पढ़ता था, मेरे पड़ोसमें एक जैन गृहस्थ रहते थे। उनके पाससे मैं जैनधर्म सम्बन्धी पुस्तकोंको लेकर पढ़ा करता था । अनेक बार मैं जैन मन्दिरोंमें भी गया। तीर्थंकरोंकी सौम्य मूर्तियोंने मेरे हृदयको अत्यधिक प्रभावित किया। कुछ रिश्तेदारोंको यह बुरा भी लगा, परन्तु जब उन्होंने देखा कि मैं ईसाई मतकी भी पुस्तकें पढ़ा करता हूँ, तब उन्होंने मेरा पीछा छोड़ दिया।
१ पं. बनारसीदासका 'अर्धकथानक आदि।
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