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________________ दर्शन और परिक्रमा 53. वहाँसे चल कर ग्यारह बजे श्री मधुबनकी तेरापन्थी कोठीमें आ गये। भूखकी वेदना व्याकुल कर रही थी, अतः शीघ्र ही भोजन बना कर सो गये। यद्यपि थकान बहुत थी, परन्तु वन्दनाके अपूर्व लाभके समक्ष उसकी स्मृति भूल गये। एक दिन आराम किया, फिर यह विचार हुआ कि परिक्रमा करना चाहिये। साथीने भी स्वीकार किया। एक आदमीको भी साथ लिया और प्रातःकाल होते-होते तीनोंने परिक्रमाके लिये प्रस्थान कर दिया। दस मील चल कर भोजन बनाया, भोजनसे निवृत्त होकर फिर मार्ग चलने लगे। एक बजे नीमियाघाट पहुँच गये। यहाँ कुछ विश्राम कर फिर चलने लगे। डेढ़ मील चलकर मार्ग भूल गये। तृषाने बहुत सताया। जो आदमी साथ था उसे भी मार्गका पता नहीं था, बड़े असमंजसमें पड़ गये ! हे भगवान् ! यह क्या आपत्ति आ गई ? जेठका महीना, मध्याह्नका समय, मार्गका परिश्रम, नीरस भोजनका प्रभाव आदि कारणोंसे पिपासा बढ़ने लगी, कण्ठ सूखने लगा, बेचैनीसे चित्तमें अनेक प्रकारके विचार आने लगे, कुछ स्थिर भाव नहीं रहा। प्रथम तो यह विचार आया कि भवितव्य दुर्निवार है। कहाँ तो यह विचार था कि जिस प्रकार वन्दना निर्विघ्न समाप्त हो गई उसी प्रकार परिक्रमा भी निर्विघ्न समाप्त हो जावेगी और इस तरह पूर्ण वन्दनाका जो फल है उसके हम पात्र हो जावेंगे, पर अब तो यह विचार आता है कि वन्दनाफल तो कालान्तरको गया। इस समय यदि मरण हो गया तो नियमसे नरकगति होगी। यहाँ यह कहावत हुई कि 'चौबे छब्बे बननेके लिये गये पर दुबे ही रह गये' अस्तु। फिर यह विचार आया कि श्रीपार्श्वप्रभु संसारके विघ्नहर्ता हैं। रविवारके दिन अनेक प्राणी जिनप्रभुकी पूजा करते हैं और उससे उन्हें संकट स्वयमेव पलायमान हो जाते हैं। जब कि भगवान् पार्श्वनाथका यह वरद है तब हम यदि निष्कपट परिणामोंसे उनका स्मरण करेंगे तो क्या यह आपत्ति दूर न होगी ? यद्यपि निरीहवृत्तिसे ही भगवानका स्मरण करना श्रेयोमार्गका साधक है। हमें पानीके लिये भक्ति करना उचित न था। परन्तु क्या करें ? उस समय तो हमें पानीकी प्राप्ति मुक्तिसे भी अधिक भान हो रही थी। अतः हमने स्वर्गादि विषयक याचनाओंको तुच्छ समझ केवल यही याचना पार्श्वप्रभुसे की कि 'हे प्रभो ! मैं पिपासासे बहुत ही व्याकुल हूँ, यह मेरी प्रार्थना सामान्य है। रत्नके बदले यदि कोई काँचका खण्ड माँगे तो देनेवालेको उसमें क्या क्षति ? हे प्रभो ! जब कि आपकी भक्तिसे वह निर्वाणपद मिलता है जहाँ कि यह कोई रोग ही नहीं है तब केवल पानी माँगनेवाले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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