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________________ 42 मेरी जीवनगाथा तो कहारको साथ ले जाया करो और जो भी काम करो, विवेकके साथ करो । जैनधर्मका लाभ बड़े पुण्योदयसे होता है। एक बात तुमसे और कहता हूँ वह यह कि महापुरुषोंके समक्ष नम्रता पूर्वक ही व्यवहार करना चाहिये । जाओ, पर तुम्हें एक काम दिया जाता है कि प्रतिदिन यहाँ आकर विद्यालयसम्बन्धी चार छह पत्र लेटरबक्समें डाल दिया करना।' मैंने कहा- 'आज्ञा शिरोधार्य है ।' महासभाका वैभव मेरी प्रकृति बहुत ही डरपोक थी। जो कुछ कोई कहता था, चुपचाप सुन लेता था । किन्तु इतना सुयोग अवश्य था कि श्रीमान् पं. गोपालदासजी वरैया मुझसे प्रसन्न थे । आप जैसे स्वाभिमानी एवं प्राचीन पद्धतिके संरक्षक आप ही थे । आपहीके प्रभावसे बम्बई परीक्षाफलकी स्थापना हुई, आपके ही सदुपदेशसे महाविद्यालयकी स्थापना हुई तथा आपके ही प्रयत्न और पूर्ण हस्तदानके द्वारा ही महासभा स्थापित एवं पल्लवित हुई । आपके सिवाय महासभाकी स्थापनामें श्रीमान् स्वर्गीय मुकुन्दरामजी मुंशी मुरादाबाद, श्रीमान् पं. चुन्नीलालजी और स्वर्गीय पं. प्यारेलालजी अलीगढ़वालोंका भी विशेष हाथ था। महासभाके प्रधानमन्त्री स्वर्गीय डिप्टी चम्पतरामजी थे और सभापति थे स्वर्गीय नररत्न राजा लक्ष्मणदासजी साहब मथुरा। उस समय जब कि मथुरा में महासभाकी बैठकें हुआ करती थीं तब उसका बहुत ही प्रभाव नजर आता था। पुराने जैनगजटोंकी फाइलें इसका प्रमाण है। उस समय जैनगजटके सम्पादक श्री सूरजभानुजी वकील थे और श्री करोड़ीमल्लजी महासभाके मुनीम थे । महासभा के अधिवेशनोंमें प्रायः बड़े-बड़े श्रीमानों और पण्डितों का समुदाय उपस्थित रहता था । कार्तिक वदिमें मथुराका मेला होता था । राजा साहबकी ओरसे मेलाका प्रबन्ध रहता था। किसी यात्रीको कोई प्रकारका कष्ट नहीं उठाना पड़ता था। राजा साहब स्वयं डेरे-डेरेपर जाकर लोगोंको तसल्ली देते थे और बड़ी नम्रताके साथ कहा करते थे कि 'यदि कुछ कष्ट हुआ तो क्षमा करना । मेले-ठेले हैं। हम लोग कहाँ तक प्रबन्ध कर सकते हैं ?' आपकी सरलता और सौम्यतासे आपके प्रति जनताके हृदयमें जो अनुराग उत्पन्न होता था उसका वर्णन कौन कर सकता है ? मेलामें शास्त्र - प्रवचनका उत्तम प्रबन्ध रहता था । प्रायः बड़े-बड़े पण्डित जनताको शास्त्र-प्रवचनके द्वारा जैनधर्मका मर्म समझाते थे। जिसे श्रवण कर जनताकी जैनधर्ममें गाढ़ श्रद्धा हो जाती थी । नाना प्रकारके प्रश्नोंका उत्तर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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