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________________ लश्करकी ओर 417 यहाँसे चार मील चलकर डबरा आ गये। श्रीमाणिकचन्द्र हजारीलालजीकी दुकानपर ठहर गये । हजारीलालजी चार भाई हैं ।परस्परमें इनके सौमनस्य हैं। इनके पिता भी जीवित हैं। इनके पिताके दो धर्मपत्नी हैं। दोनों ही बहुत सज्जन हैं। अतिथिके आनेपर उसकी पूर्ण वैयावृत्य करनेमें तत्पर रहते हैं। यहाँ इनकी दुकान अच्छी चलती है। यहाँ पर मन्दिर नहीं है, अतः उसकी स्थापनाके लिये इनके भाई फूलचन्द्रजी पूर्ण प्रयत्न कर रहे हैं। वैशाख वदि ५ को यहाँ सभा हुई, जिसमें आपने श्री मन्दिरजीके लिये एक हजार एक रुपया दिये। समाजने भी यथायोग्य दान किया। एक महाशयने तो यहाँ तक उत्साह दिखाया कि केवल मन्दिरही नहीं पाठशाला तथा धर्मशाला भी बनना चाहिये। यह सब हुआ, परन्तु एक भाईके पास मुट्ठीका रुपया था। वह कहते थे कि 'भाई ऐसा न हो कि यह कार्य जिस प्रकार अनेक बार चिट्ठा होकर भी नहीं हुआ उसी प्रकार फिर भी न हो।' इसी चर्चामें ही सभा समाप्त हो गई। वैशाख वदि ६ को भी सभा हुई, परन्तु उसमें भी विशेष तत्त्व न निकला । अनन्तर वैशाख वदि ७ को पुनः सभा हुई, जिसमें श्रीचिदानन्दजी ब्रह्मचारी ने प्रभावक भाषण दिया। उसका बहुत ही अधिक प्रभाव पड़ा और चन्दा हो गया। बाबाजीने दोपहरको जाकर सब रुपये वसूल कर दिये। अनन्तर यह विचार आया कि श्रीलालजी सेठ जैसवालका मकान पैंतालीस सौ रुपयामें लिया जावे। यह विचार सबने स्वीकृत किया तथा उसीकी बगलमें लाला रामनाथ रामजीने अपनी जमीन दे दी, जो कि सत्तर फुट लम्बी पचपन फुट चौड़ी थी। पश्चात् फिर भी परस्परमें मनोमालिन्य हो गया । अन्तमें श्रीलालने कहा कि मन्दिर तो बनेगा ही और मुझे जो रुपये मिले हैं, वे इसी मन्दिरमें लगा दूंगा। बहुत देर तक यही बातचीत होती रही, परन्तु पुनः विवाद हो गया। मैंने मध्यस्थ रहते हुए कहा कि 'जो हो अच्छा है। मेरा सबसे स्नेह है, आपकी इच्छा हो, सो करें।' प्रातःकाल अष्टमीको सभा हुई, जिसमें एक अग्रवाल महानुभावने, जो कि बाजार कमेटीके सदस्य थे, बहुत ही प्रयत्न किया तथा आदेश भी दिया कि मन्दिरको चन्दा हो जाना चाहिए, परन्तु कुछ नहीं हुआ। अन्तमें निराश होकर लोग उठ गये। हम भी निराश होकर चले आये। उस दिन भोजनमें उपयोग नहीं लगा, अतः पानी लेकर ही सन्तोष किया। उसका प्रभाव अच्छा पड़ा। फल यह हुआ कि श्रीलालजी आदि रात्रिके आठ बजे आये और उन्होंने यह निश्चय किया कि हमको जो रुपये मिले हैं वे सब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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