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________________ एक स्वप्न 415 किया जावे। परन्तु आपको तो पूजन करना है, इससे अवकाश नहीं। अच्छा, मैं भी आपकी पूजन देखूगा और पुण्य लाभ करूँगा। आप सदृश आप ही हैं।' सर सेठ सहाब ने मुस्कराते हुए कहा कि 'मैं पूजन कर अभी तैयार होता हूँ। मैने कहा-'यह सब हुआ। आपने आजन्म पण्डितोंका समागम किया है और स्वयं अनुभव भी किया है। पुण्योदय से सब प्रकार की सामग्री भी आपको सुलभ है, किन्तु क्या आप इस बाह्य विभवको अपना मानते हैं ? नहीं, केवल सराँयका सम्बन्ध है। अथवा "ज्यों मेले में पंथी जन मिल करें नन्द धरते । ज्यों तरुवर पर रैन बसैरा, पक्षी आ करते ।। यह सब ठाठ कर्मज है......यह भी उपचार कथन है। वस्तुतः न यह ठाठ है और न वे ठाठ हैं। केवल हमारी मोहकी कल्पना उसे यह रूप दे रही है। वस्तु तो सब भिन्न-भिन्न ही हैं, केवल हमारी कल्पनाओं ने उन्हें निजत्व रूप दे रक्खा है। जिस दिन यह निजत्व की कल्पना मिट जावेगी उसी दिन आत्मा का कल्याण हुआ समझो, क्योंकि जब जीव के सम्यग्दर्शन हो जाता है तब 'मिच्छत्तहुण्ड' इत्यादि ४१ प्रकृतियाँ तो बँधती ही नहीं, जो पूर्वकी सत्ता में बैठी हैं, यद्यपि उनका उदय आवेगा तो भी उस प्रकार का बन्ध करने में समर्थ नहीं। अस्तु, जो शत्रु अभी सत्ता में स्थित है। उसे क्या कम समझते हो ? बड़े-से-बड़े महापुरुष भी उसके उदय में अपना वास्तविक प्रभाव प्रकट नहीं कर सके। बलभद्र से महापुरुष भी जब मृत कलेवर को छ: मास लिये घूमते रहे तब अन्य अल्पशक्तिवाले मोही जीवोंकी कथा क्या है ?' सेठ जी कुछ बोलना चाहते थे कि मेरी निद्रा भंग हो गई-स्वप्न टूट गया। दिल्लीयात्राका निश्चय ग्रीष्मकालका उत्ताप विशेष हो गया था, अत: यह विचार किया कि ऐसी तपोभूमिमें रहकर आत्मकल्याण करूँ। मन में भावना थी कि श्री स्वर्णगिरिमें ही चातुर्मास करूँ और इस क्षेत्रके शान्तिमय वातावरणमें रहूँ। क्षेत्रके मैनेजर श्री दौलतरामजीने ठहरने आदिकी अतिसुन्दर व्यवस्थाकी थी, जिससे यहाँ सब प्रकारका आराम था। श्री मनोहरलालजी वर्णी तथा बाबू रतनचन्द्रजी सहारनपुर चले गये थे। उनके कुछ समय बाद समाजके उत्साही विद्वान् पं. चन्द्रमौलिजी शास्त्री सोनागिरि आये और साथमें पं. भैयालालजी भजनसागर को भी लेते आये और देहली चलनेके लिये प्रेरणा करने लगे। मैंने बहुत प्रयत्न किया कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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