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________________ बरुआसागरसे सोनागिरि 413 संघ के जो मैनेजर हरिश्चन्द्रजी हैं उन्होंने यह कहा कि 'वर्णीजी का यह कहना है कि आप चार आदमी से अधिक का प्रबन्ध मत करना। उनमें आप नही आते। अतः आप मत चलो, हम आपका प्रबन्ध नहीं कर सकेंगे।' 1 मैं बोला- 'मैने हरिश्चन्द्रजी से यह बात अवश्य कहीं थी, परन्तु उसका यह आशय न था जो लगाया गया । सम्भव है श्री हरिश्चन्द्रजी का भी वह आशय न हो जो कि महाराजने अवगत किया हो । अथवा कुछ हो, मूल पर आओ । मेरा यह आशय अवश्य था कि यह प्रकृति से भद्रता की अवहेलना करते हैं। सम्भव है इनके सम्पर्क से मैं अपनी दुर्बलता को नहीं छिपा सकूँ, अतः इनका जाना मुझे इष्ट न था । इसलिए मैने हरिश्चन्द्रजी से कह दिया । वास्तव में हरिश्चन्द्र कोई दोषभाक् नहीं, दोषभाक् तो मैं ही हूँ। अस्तु, यह सर्वथा माननीय सिद्धान्त है कि पर का संसर्ग सुखद नहीं... यह जानकर भी मैं इन संसर्गोसे भिन्न नहीं रहता । फल इसका यह प्रत्यक्ष ही है । अन्तरंगसे ज्ञानको निर्मल बनाने की चेष्टा करनी चाहिये। ज्ञान की निर्मलता तभी होगी जब इन पर पदार्थों का सम्पर्क छूट जावेगा और इनका सम्पर्क तभी छूटेगा जब यह दृढ़तम निश्चय हो जावेगा कि कोई पदार्थ किसी का न तो कर्ता है, न धर्ता है और न हर्ता है । सब पदार्थ अपने स्वरूप में लीन हैं। श्रीयुत महानुभाव कुन्दकुन्द स्वामीने कर्तृकर्म अधिकार में लिखा है— 'जो जम्हि गुणो दव्वे सो अण्णम्हि ण संकमदि दव्वे | सो अण्णमसंकतो कह तं परिणामए दव्वं । ।' इस लोक में जो पदार्थ हैं वे चाहे चेतनात्मक हों, चाहे अचेतनात्मक, वे सब चेतन द्रव्य और चेतन गुण अथवा अचेतन द्रव्य और अचेतनगुणों में ही रहते हैं। यही वस्तुकी मर्यादा है। इसका संक्रमण नहीं हो सकता । महावीर जयन्ती Jain Education International सोनागिरि चैत्रशुक्ल १३ वीराब्द २४७४ श्री महावीर स्वामी का जन्म संसार में अद्वितीय ही था । अर्थात् इस कलिकालके उद्धार के लिए वे ही अन्तिम महापुरूष हुए। उनके पहले २३ तीर्थंकर और भी हुए, जिनके द्वारा एक कोड़ाकोड़ी सागर पर्यन्त धर्म की प्रभावना रही। जिस आत्मा में धर्मका उदय होता है वह अपने कर्त्तव्य पथको समझने लगता है। जैसे सूर्योदय काल में नेत्रवान् पुरुष मार्ग प्राप्त कर अपने-अपने अभीष्ट कार्यों की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं । एवं श्री 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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