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________________ मेरी जीवनगाथा 396 जिससे लगभग ३/४ रकम उसी समय भरी गई। आज सेठजीका भी भाषण हुआ। आपने कहा कि 'दानका द्रव्य कभी व्यर्थ नहीं जाता। मैंने अपने जीवनमें अनेक बार अनुभव कर देखा है। आप आज ही एक बजे दिनको अपने समस्त साथियोंके साथ इन्दौरके लिए प्रस्थान कर गये। जाते समय सागर समाजने हार, माला आदिसे आपका सत्कार किया। इस प्रकार तीन दिन तक आपके शुभागमनसे सागरमें काफी चहल-पहल रही। आपका परिचय मैं क्या लिखू, सब जैन समाज आपसे परिचित है। पर इतना अवश्य लिखना चाहता हूँ कि आप प्रतिदिन प्रातःकाल दो घण्टा तत्त्वचर्चा करते हैं और उसमें श्रीमान् पं. बंशीधरजी सिद्धान्तशिरोमणि, श्रीमान् पं. देवकीनन्दनजी व्याख्यान वाचस्पति, न्यायके मार्मिक पण्डित जीवन्धरजी तथा श्रीमान् त्यागी परमविवेकी प्यारेलालजी भगत आदि त्यागीवर्ग सम्मिलित रहते हैं। इस समय यदि जैन जाति के धनाढ्य महोदय आपका अनुसरण करें तो जैन धर्मका अनायास विकास हो जावे। सागरसे प्रस्थान चातुर्मासका समय निकट था । अतः मैं सागरमें ही रह गया। आनन्दसे वर्षाकाल बीता । भाद्रमासमें लोगोंका समुदाय अच्छा रहता था। किसी प्रकारकी चिन्ता मनुष्योंको नहीं थी, क्योकि चन्दा माँगनेका प्रयास नही किया गया था। यह कई बार अनुभव कर देखा गया है कि जहाँ चन्दा माँगा वहाँ समस्त कलाओंका अनादर हो जाता है। यद्यपि द्रव्य परपदार्थ है, इसके त्यागनेका जो उपदेश देता है वह परमोपकारी हैं। द्रव्यका जो लोभ है वह मूर्छा है, जो मूर्छा है वह परिग्रह है और परिग्रह ही सब पापों की जड़ है, क्योकि बाहृा परिग्रह ही अन्तरंग मूर्छाका जनक है। और अन्तरंग परिग्रह ही संसारका कारण है, क्योंकि अन्तरंग बिना बाह्य पदार्थों का ग्रहण नहीं होता। यही कारण है कि भगवान्ने मिथ्यात्त्व, वेद, राग, हास्यादि षट् और चार कषाय इन्हें ही परिग्रह माना है। जब तक इनका सद्भाव है तब तक ही यह जीव परवस्तुको ग्रहण करता है। इसमें सबसे प्रबल परिग्रह मिथ्यात्व है। इसके सद्भावमें ही शेष परिग्रह बलिष्ठ रहते हैं। जैसे कि मालिकके सद्भावमें कूकर बलशाली रहता है। इतना बलशाली के सिंह पर भी टूट पड़ता है। परन्तु मालिकके अभावमें एक लाठीसे पलायमान हो जाता है, अतः जिन्हें आत्मकल्याणकी अभिलाषा है उन्हें द्रव्य त्यागका उपदेश देनेवालों को अपना परम हितैषी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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